डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी आधुनिक हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष हैं। उन्होंने हिंदी गद्य साहित्य की अनेक विधाओं का भंडार भरा है। द्विवेदी जी संस्कृत और हिंदी के प्रकांड पंडित थे। वे अंग्रेजी भाषा एवं साहित्य के भी अधीत जानकार थे। आज का यह लेख हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय है, जहाँ हम इनकी प्रमुख रचनाएँ, निबंध कला, आलोचना दृष्टि और व्यक्तित्व की बात करेंगे।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म बलिया ज़िले के ‘आरत दूबे का छपरा’ नामक गाँव में सन 1907 ई. में हुआ था। 72 वर्ष की अवस्था में सन 1979 ई. में उनका निधन हो गया। द्विवेदी जी का साहित्यिक व्यक्तित्व विराट और विलक्षण है। उन्होंने जिस किसी विधा में लिखा, उस पर अपने व्यक्तित्व की मौलिकता की छाप छोड़ी।
द्विवेदी जी ने संस्कृत में ज्योतिषाचार्य की उपाधि प्राप्त की और इंटर की भी परीक्षा पास की। कुल-परम्परा के अनुसार उन्होंने आरम्भ में पौरोहित्य और ज्योतिष-ज्ञान के बल पर आजीविका का अर्जन किया। अपने इस काल के जीवन के अनुभवों के वृत्तांत का उल्लेख उन्होंने ‘वयोमकेशदास का चिट्ठा’ में प्रच्छन्न रूप में किया है।
द्विवेदी जी को शांति निकेतन में अध्यापक का पद प्राप्त हुआ। वहाँ वे लगभग दस वर्षों तक (1940-50) रहे तथा हिंदी-भवन के निदेशक के पद को भी सुशोभित किया। उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय और पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष एवं रेक्टर के पद पर भी नियुक्त हुए। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें डी. लिट् की मानद उपाधि भी प्रदान की तथा राष्ट्रपति ने पद्मभूषण से भी अलंकृत किया।
शांति निकेतन में रहते हुए द्विवेदी जी कविगुरु रविंद्रनाथ ठाकुर, विधुशेखर भट्टाचार्य, आचार्य क्षितिमोहन सेन आदि के निकट सम्पर्क में आए। इस सम्पर्क ने न केवल उनके ज्ञान को समृद्ध किया अपितु उनके साहित्यिक व्यक्तित्व को निखारने में भी बहुमूल्य योगदान किया। उन पर बँगला साहित्य का भी प्रभूत प्रभाव पड़ा।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का साहित्यिक परिचय
द्विवेदी जी का कृतित्व विशाल है। उन्होंने सहित्येतिहास लिखा, आलोचनाएँ लिखीं, निबंधों की रचना की, उपन्यासों का सृजन किया तथा शोधपरक कृतियों का प्रणयन किया। उनका मौलिक व्यक्तित्व हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्यायों के शोधकर्ता के रूप में प्रकट हुआ।
रामचंद्र शुक्ल हिंदी आलोचना की जिस परम्परा की नींव डाल गए थे, द्विवेदी जी ने उससे भिन्न आलोचना की नयी पद्धति की शुरुआत की।
द्विवेदी जी भारतीय वांगमय, साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान थे। उनका भारतीय संस्कृति का बोध अत्यंत प्रखर था। वे चाहे साहित्य का इतिहास लिख रहे हों या आलोचना अथवा उपन्यास या निबंध का सृजन कर रहे हों, उनका सांस्कृतिक-बोध सदैव जागरूक बना रहा तथा उनकी रचनाओं की अंतर्धारा में यह बोध लहराता रहा।
Hazari Prasad Dwivedi निबंध-कला
डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी के प्रथम मौलिक ललित निबंधकार हैं। हिंदी के स्वातंत्र्योत्तर काल के निबंधकारों में उनका सबसे सबसे ऊँचा और विशिष्ट स्थान है। उन्होंने ललित निबंध की जिस परम्परा की नींव डाली, उसी के पदचिह्नों पर डॉ. विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय आदि चले।
उनके ललित निबंधों में उनका हँसता हुआ, व्यंग्य करता हुआ, शोध करता हुआ, चिंतन करता हुआ, शब्दों के माध्यम से संस्कृति की तह में पहुँचता हुआ, ज्ञान का अनमोल ख़ज़ाना खोलता हुआ, कभी गम्भीर तो कभी बिलकुल उन्मुक्त और सहज चेहरा बराबर झाँकता रहता है।
उनके उपन्यासों के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। उनके उपन्यास उपन्यास मात्रा नहीं है। वे अपने युग की संस्कृति और राजनीति के, समाज और आचार के, जीवन और व्यवहार के सजीव दर्पण हैं।
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हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की प्रमुख रचनाएँ
द्विवेदी जी की सहित्येतिहास एवं शोधपरक कृतियाँ निम्नलिखित हैं- ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’, ‘नाथ सम्प्रदाय’, ‘सूर-साहित्य’, ‘मध्यकालीन धर्मसाधना’, ‘हिंदी साहित्य का आधिकाल’, ‘साहित्य का मर्म’ और ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’। द्विवेदी जी सिद्ध सम्पादक भी थे। उन्होंने परिश्रमपूर्वक ‘पृथ्वीराजरासो’, ‘संदेशरासक’ और ‘नाथ एवं सिद्धों की वाणियों’ का भी सम्पादन किया।
उन्होंने चार उपन्यास लिखे- ‘पुनर्नवा’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’, ‘चारुचंद्रलेख’ और ‘अनामदास का पोथा’। उपन्यास-लेखन के क्षेत्र में भी उन्होंने मौलिक प्रयोग किया। उनके अनेक निबंध-संग्रह प्रकाशित हैं- ‘कल्पलता’, ‘अशोक के फूल’, ‘कूटज’, ‘विचार प्रवाह’।
द्विवेदी जी की भाषा संस्कृत-निष्ठ है। उसमें क्लिष्टता भी है किंतु वह कहीं से भी कृत्रिम और शुष्क नहीं है। उनकी भाषा में प्रभावोत्पादन की अपार क्षमता निहित है। इनके विचार और चिंतन मौलिक हैं। इसका सृजन मौलिक है। इनकी भाषा-शैली और शिल्प मौलिक हैं।