कहानियाँ तो आप सभी ने सुनी होंगी, लेकिन क्या आपको पता है कि हिन्दी साहित्य में ‘कहानी’ पूरा एक महत्त्वपूर्ण भाग है। और आज हम हिन्दी कहानी के उद्भव और विकास के बारे में तो बात करेंगे ही, साथी ही अलग-अलग कहानीकार के समय की स्थितियाँ भी जानेंगे कि हिन्दी कहानी का इतिहास क्या है? और पुरानी कहानी और नई कहानी में अंतर क्या है?
कहानी किसे कहते हैं?
कहानी, कथा अथवा कथानिका शब्द संस्कृत भाषा की ‘कथ्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- ‘कहना’। अतएव इसका जो कही जा सके, जिसमें कथा आदि कहने के योग्य कथन (कथानक) हो, वही कहानी है।”
आख्यायिका (संस्कृत), गल्प (बांग्ला), स्टोरी (आंग्ल) आदि भी इन्हीं के नामांतर हैं। समय के साथ-साथ, कम-से-कम हिंदी जगत में, ‘कहानी’ नाम ही रूढ़ हो गया है। अनेक परिभाषाओं से सज्जित होने पर भी मुख्यतः ‘कहानी को केवल जीवन के संदर्भों में, युग-बोध में ही समझा जा सकता है।”
हिन्दी कहानी का इतिहास
सुप्रसिद्ध आंग्ल लेखक रिचर्ड बर्टन ने ठीक लिखा है कि “कहानी दुनिया की सबसे पुरानी वस्तु है, इसलिए आश्चर्य नहीं, इसका आरम्भ उसी समय हो जब मनुष्यों ने घुटनों के बाल चलना सिखा।” डॉ. धीरेंद्र वर्मा (हिंदी साहित्यकोश) के मत में, “अनुमान है कि जादूगरों की कथाएँ किसी-न-किसी रूप में 4000 ईसा पूर्व से 3000 ई.पू. तक प्रचलित थीं।”
जहाँ तक प्रश्न है उपलब्ध प्रमाणों का, उसके अनुसार कम-से-कम भारत में, कहानी का प्रचार-प्रसार आदिमकालीन है। विश्व का प्राचीनतम भारतीय ग्रंथ ‘ऋग्वेद’ इसका प्रमाण है, जिसमें ‘यम-यमी’, ‘उर्वशी-पुरुरवा’ एवं ‘सरमा-पणिगण’ जैसी कथाएँ उपलब्ध होती हैं।
इसके पश्चात् ब्राह्मण (सौपर्णी का द्रव), उपनिषद् (सनतकुमार-नारद), महाकाव्य (गंगावतरण, नहुष, शकुंतला, दयमंती आदि) से लेकर बुधस्वामी के वृहत्कथाश्लोक संग्रह, क्षेमेन्द्र की ‘वृहत्कथामंजरी’, सोमदेव के ‘कथासरितसागर’, गुनाढ्य की ‘वृहत्कथा’, दंडी के ‘दशकुमार चरित’ तथा विष्णु शर्मा के ‘पंचतंत्र’ आदि अनेक कहानी-ग्रंथों के रूप में संस्कृत साहित्य में कहानी की पूरी परम्परा ही मिलती है।
इसी प्रकार प्राकृत अपभ्रंश और पाली आदि में जातक-कथाएँ एवं धार्मिक-साम्प्रदायिक कथाएँ एवं मुस्लिम काल में ‘लैला-मजनू’, ‘यूसुफ़-जुलेखा’ जैसी प्रेम कहानियाँ पूर्व परम्परा को ही बढ़ाती हैं।
हिंदी की प्रथम कहानी
हिंदी-कहानी का श्रीगणेश आधुनिक गद्य काल में होता है। भारतेंदु से पूर्व लल्लूलाल का ‘प्रेमसागर’ संदल मिश्र का ‘नासिकेतोपाख्यान’ तथा इन्शाअल्ला खाँ की (रानी केतकी की कहानी) जैसी कहानियाँ भी मिलती हैं, किंतु ये या तो अनुवाद हैं अथवा कलात्माक दृष्टि से शिथिल हैं।
इनमें से तीसरी अर्थात् ‘रानी केतकी की कहानी’ को पर्याप्त समय तक हिंदी की प्रथम कहानी माना जाता रहा है। इसी प्रकार राजा शिवप्रसाद की ‘राजा भोज का सपना’ और ‘गुलाब चमेली का क़िस्सा’ तथा भारतेंदु कृत ‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ भी इसी वर्ग में आती है क्योंकि इनका भी प्रारम्भिक रूप इनमें नहीं वरन् निम्न कहानियों में देखने को मिलता है।
कहानीकार | कहानी | प्रकाशन सन |
माधवप्रसाद मिश्र | मन की चंचला | 1900 |
किशोरीलाल गोस्वामी | इंदुमती | 1900 |
रामचंद्र शुक्ल | ग्यारह वर्ष का समय | 1902 |
किशोरीलाल गोस्वामी | गलबहार | 1902 |
गिरिजादत्त वाजपेयी | पंडित और पंडितानी | 1903 |
भगवानदास | प्लेग की चुड़ैल | 1903 |
बंगमहिला | दुलाई वाली | 1907 |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनमें से तीन कहानियों को मार्मिकता के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ माना है- ‘इंदुमती’, ‘ग्यारह वर्ष का समय’ और ‘दुलाई वाली’। ‘इंदुमती’ के बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिंदी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। डॉ. श्रीकृष्ण लाल (हिंदी कहानियाँ) ने उसे ‘टैम्पेस्ट’ की छाया माना है और इस प्रकार उसके हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी होने के संबंध में आपत्ति प्रकट की है।
डॉ. गोविंद त्रिगुणायत के मतानुसार, “वह टैम्पेस्ट से मिलती-जुलती तो अवश्य है, किंतु वस्तु-विन्यास, रचना-शैली तथा चरित्र-चित्रण आदि की दृष्टि से वह सर्वथा एक मौलिक प्रयास है।” दूसरी ओर, इन कहानियों पर समग्र रूप से विचार करते हुए डॉ. धीरेंद्र वर्मा ने धारणा व्यक्त की है, “इनमें से कुछ विदेशी शैली की हैं, कुछ जीवन, स्कैच, इतिहास, निबंध के निकट हैं। कहानी-शिल्प का सौंदर्य इनमें नहीं है।”
फिर भी आलोचकों (यथा रामचंद्र शुक्ल, रायकृष्णदास तथा डॉ. धीरेंद्र वर्मा आदि) ने ‘दुलाई वाली’ को ही हिंदी की प्रथम मौलिक कहानी स्वीकार किया है। यदि शिल्प विधान की दृष्टि से देखा जाय तो पता चलेगा कि हिंदी की इन आरम्भिक कहानियों में कुतूहल और चमत्कार की प्रधानता है।
वर्तमान कहानी अपनी जिस मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता, चरित्र-चित्रण कौशल, संवेदनीयता तथा प्रभाव-अन्विति के लिए प्रसिद्ध है और जो कहानी का प्राणतत्त्व है, इन कहानियों में देखने को नहीं मिलता। दूसरे शब्दों में, कालक्रम और कलाशिल्प की दृष्टि से ये हिंदी की ‘अपरिपक्व प्रारम्भिक कहानियाँ’ ही मानी जा सकती हैं।
हिंदी कहानी का उद्भव और विकास
हिंदी कहानी की विकास-स्थितियों का विभाजन और नामकरण आलोचकों ने विविध आधारों पर किया है। कुछ ने इनको कालक्रमानुसार पहली, दूसरी, तीसरी आदि स्थितियों में रखा है तो कुछ ने प्रारम्भ, विकास और चरम उत्कर्ष काल आदि में।
- कुछ इनको बाल्यकाल, यौवनकाल और प्रौढ़काल कहते हैं तो कुछ भारतेंदु युग, प्रसाद युग अथवा स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्र्योतर काल आदि में देखते हैं।
- किंतु, वाद-विवाद का दुराग्रह छोड़ दें तो हिंदी कहानी का पूरन व्यवस्थित और कलात्मक रूप सर्वप्रथम प्रेमचंद की कहानियों में ही दृष्टिगत होता है।
- उनसे पूर्व हिंदी कहानी छूटपुट या अधकचरे निर्माण-रूप में थी जो उनके समय में पूर्णतः व्यवस्थित और कालांतर में एकदम विकासोन्मुख हुई।
- स्वतंत्रता के पश्चात् उसमें तात्त्विक, कलात्मक और विषयगत नाना प्रकार के नूतन समावेश हुए और फलतः आज हिंदी कहानी एक साथ नए-पुराने विविधमुखी रूपों में उपस्थित है।
- इस प्रकार, हिंदी कहानी की विकास-स्थितियों का अवलोकन हम मुख्यतः तीन रूपों में कर सकते हैं- (1) प्रेमचंद पूर्व (प्रारम्भिक काल) (2) प्रेमचंद युग (विकासाधिक्य काल) तथा (3) स्वातंत्र्योतर (चरम विकास) काल।
हिन्दी कहानी की प्रेमचंद-पूर्व स्थिति
इस वर्ग में प्रेमचंद के उदय काल तक की अवधि में रचित कहानियाँ आती हैं, अर्थात् पूर्व भारतेंदु, भारतेंदु और द्विवेदी युग तक की कुछ कहानियाँ। कहानी के इन प्रारम्भिक काल में कहानियाँ प्रायः दो स्रोतों से संबंधित थीं। एक- संस्कृत कथा या लोकप्रचलित मौखिक कथाओं का स्रोत, दूसरा उर्दू-फ़ारसी की कहानियों का स्रोत।
पहले से संस्कृत की धार्मिक पौराणिक कहानियों के अनुवाद तथा ‘क़िस्सा तोता-मैना”, “किसा साढ़े तीन यार” आदि आते हैं तो दूसरे में “बागो बहार’, ‘चार दरवेश’, ‘दास्ताने अमीर हमज़ा’ और ‘तिलस्मे होशरवा’ आदि। विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी कहानियों के अनुवाद और भारतेंदु हरिश्चंद्र, माधव मिश्र, पार्वतीनंदन आदि के छुटपुट प्रयास एवं किशोरीलाल गिस्वामी आदि की कहानियाँ भी इसी युग की देन है।
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प्रेमचंद-युग हिन्दी कहानी विकास काल
हिंदी की कहानी रचना को नवीन और सुदृढ़ रूप प्राप्त हुआ है- श्री जयशंकर प्रसाद तथा प्रेमचंद जी के आविर्भाव से। “एक ने हिंदी-कहानी को भारतीय इतिहास के गौरव से चमत्कृत किया, दूसरे ने हिंदी कहानी को जीवन के दुःख-सुख के साथ रोना-हँसना सिखाया।
एक ने हिंदी कहानी को कला पक्ष का सौंदर्य दिया, दूसरे ने भाव पक्ष का। एक ने उसे सौंदर्य की छटा दिखाई, दूसरे ने उस सौंदर्य के पीछे छिपी हुई कुरूपता। तात्पर्य यह है कि दोनों कलाकारों ने अपनी-अपनी स्वतंत्र तथा मौलिक प्रतिभा के अद्भुत चमत्कार से हिंदी कहानी को ऐसी युग-चेतना प्रदान की जिसके संबल से वह अधिक चेतन होती जा रही है।”
प्रसाद जी ने 69 कहानियाँ प्रस्तुत कीं (जो उनके 5 कहानी संग्रहों में संकलित हैं)। उनकी कहानी-रचना शैली को यदि कोई सामूहिक संज्ञा प्रदान की जाए तो वह होगी- भाव प्रधान, रचना शैली। प्रेमचंद जी की रचना शैली भिन्न प्रकार की थी। इन भिन्नता के व्यक्ति भेद के अतिरिक्त, दो अन्य कारण भी थे- प्रेमचंद का हिंदी में उर्दू से आना और स्वभाव से कवि न होना।
उनकी लगभग 22 कहानियों में से मानसरोवर: 8 भाग उनकी आदर्शोन्मुख यथार्थवाद प्रधान रचना शैली में देखा जा सकता है। इस युग के कुछ अन्य प्रमुख कहानीकार हैं- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी (केवल 3 कहानियाँ), विश्वम्भरनाथ कौशिक (विधवा, रक्षाबंधन, ताई, इक्केवाला आदि), राधिकारमण (कानों में कंगना), सुदर्शन (पुष्पलता), चतुरसेन (श्रेष्ठ कहानियाँ: 6 भाग), उग्र (दोज़ख़ की आग, चाकलेट कला का पुरस्कार, श्रेष्ठ कहानियाँ) आदि। इनकी प्रमुख विशेषताएँ हैं- आदर्शोन्मुख यथार्थ, व्यापक जीवन-परिवेश, सजीव चित्रण, जैन-जीवन की निकटता तथा कलात्मक शैली-गठन आदि।
प्रेमचंद के पश्चात् हिंदी कहानी की स्थिति
प्रेमचंद के पश्चात् हिंदी कहानी की धारा मुख्य दो रूपों में प्रवाहित हुई। एक अंतर्मुखीप्रधान थी और दूसरी बाह्यप्रधान। पहली थी मनोवैज्ञानिक और दूसरी प्रगतिवादी। मनोवैज्ञानिक कहानी धारा में “वैयक्तिक कुंठाएँ, मानस-जगत की गुत्थियाँ, अंतर्द्वंद, कुंठाग्रस्त चरित्र, वैयक्तिक समस्याएँ- विशेषतः फ्रायडीड विचारधारा ने अनुकूल सैक्स समस्याएँ- प्रमुख विषय थीं।
इस धारा के प्रवर्तक हैं- श्री जैनेंद्र कुमार जिनके प्रमुख कथा संग्रह हैं- दो चिड़िया, पाजेब, ध्रुव यात्रा, एक दिन, फाँसी, जयसंधि, स्पर्धा, नीलम देश की राजकन्या तथा जैनेंद्र की कहानियाँ- 8 भाग। इसी धारा के कुछ अन्य प्रमुख कहानीकार हैं- अज्ञेय (विपथगा, कोठारी की बात, शरणार्थी जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप, परम्परा)। इलाचंद्र जोशी (रोमांटिक छाया, खंडहर की आत्माएँ, डायरी के नीरस पृष्ठ, धूल लता, आहुति, आदि)। डॉ. देवराज तथा भगवती प्रसाद वाजपेयी (मधुपर्क हिलोर, मेरे सपने, उफ़ार, ख़ाली बोतल, बाती और लौ) आदि।
प्रगतिवादी कहानी-धारा का मूल प्रेरक स्रोत है- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद अथवा साम्यवादी विचारधारा। रोटी और सेक्स इसके प्रधान विषय हैं। सामाजिक यथार्थ, समाज के निम्न या निम्न मध्य वर्ग का चित्रण एवं परम्परागत मान्यताओं का विरोध आदि इसकी अपनी विशेषताएँ हैं। इस धारा के सबल कहानीकार हैं- यशपाल (पिंजरे की उड़ान, वो दुनिया, तर्क का तूफ़ान, अभिशप्त, फूलों का करता, धर्म युद्ध) और कहानीकार अश्क (छींटे, जुदाई की शाम, दो धारा, झेलम के सात पुल तथा सत्तर श्रेष्ठ कहानियाँ)। रांगेय राघव, अमृतराय, विष्णु प्रभाकर तथा भगवतीचरण वर्मा आदि भी इसी युग के प्रमुख हस्ताक्षर हैं।
इसी युग में आकर ऐतिहसिक कहानियाँ भी प्रचुर मात्रा में लिखी गायीं। गोविंदवल्लभ पंत, चतुरसेन शास्त्री, सुदर्शन आदि इसी वर्ग के कहानीकार हैं। सर्वाधिक सफल हैं- वृंदावनलाल वर्मा। इसी भाँति हास्य व्यंग्यमयी कहानियों में प्रमुख थे- निर्ल, जी. पी. श्रीवास्तव, अन्नपूर्णानंद, बेढ़ब बनारसी मिर्ज़ा अज़ीम बेग चुगताई, हरिशंकर शर्मा चोंच, काशीनाथ, उपाध्याय तथा बरसाने लाल चतुर्वेदी। प्रसिद्ध शिकारी श्रीराम शर्मा ने शिकार-कथा प्रकार का श्रीगणेश भी इसी युग में किया था।
स्वातंत्र्योत्तरकालीन (नयी समकालीन) कहानी
जिस प्रकार, वर्तमान शती की चौथी-पाँचवीं शताब्दी (1940-50 ई.) में हिंदी काव्य क्षेत्र में ‘नयी कविता’ के नाम से एक नया आंदोलन छिड़ा, उसी भाँति कथा क्षेत्र में भी ‘नवीन’ की माँग पूर्ति को लेकर एक नयी कहानी परम्परा प्रकाश में आने लगी।
‘प्रतीक’ कहानी और ‘नयी कहानी’ आदि विभिन्न कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से एक ओर तो परम्परागत रूपों को नकारा और दूसरी ओर अपनी स्वतंत्र मान्यताएँ स्थापित कीं। इसी प्रकार की कहानियों को आलोचक वर्ग ने ‘नयी कहानी’ की संज्ञा प्रदान की।
कालक्रम से, नयी कहानी का आविर्भाव काल सन 1950 के लगभग माना जा सकता है और सर्वप्रथम नयी कहानी होगी- शिव प्रसाद सिंह की ‘दादी माँ’ जिसका सर्वप्रथम प्रकाशन सन 1951 में ‘प्रतीक’ पत्रिका में हुआ था। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि बंगमहिला से लेकर यशपाल तक की कहानियाँ ‘पुराने’ वर्ग में और यशपाल के पश्चात् प्रकाश में आने वाले नए कहानीकारों (यथा राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मार्कण्डेय, शानो, उषा और दूधनाथ सिंह आदि) की कहानियाँ ‘नयी कहानी के वर्ग में आती हैं।
‘पुरानी’ और ‘नयी’ कहानी में अंतर
पुरानी कहानी, जैसा कि श्री कमलेश्वर ने (नयी कहानी की भूमिका में) कहा है, ‘यह शब्द उन लेखकों द्वारा प्रयोग में लाया जा रहा है जो अधिकांशतः ‘नयी कहानी’ के समर्थक हैं। उनके उन्मेष से पहले कहानी का रूप रूढ़ (पारम्परिक नहीं) हो गया था, उसके लिए ‘पुरानी कहानी’ शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है।
यानी वह रूढ़ कहानी, जो एक साँचे में ढलती थी, जो गहन मानवीय संकट और अपेक्षाओं को वाणी देने में असमर्थ थी। जिसने किस्सगोई को तो कुछ-कुछ छोड़ दिया था, पर निष्कर्षवादी अंतों से जुड़ी हुई थी। पुरानी कहानी कुछ न कहने में विश्वास नहीं रखती थी, बल्कि जो कुछ कहती थी, वह संश्लिष्ट मानव प्रकृति की अवज्ञा करके, वह मात्र लेखक के अभीप्सित मंतव्य की ज़ोरदार वाहक होती थी।
उसका पात्र इकहरा होता था और झूठे आदर्शवाद से पीड़ित राहत था। वह ओढ़े हुए या आरोपित विचारों तथा जीवन की कहानी है, दूसरी ओर “नयी कहानी का उदय ऐतिहसिक संदर्भ में हुआ। इसने परिपाटीबद्ध रूढ़ अर्थों में कहानी को स्वीकार नहीं किया। यह एक ऐसा मोड़ था जो आंतरिक और बाह्य कारणों से हिंदी कहानी में आया। इसके अंतर्गत कहानी के ‘फ़ॉर्म’ तथा ‘कथ्य’ दोनों स्तरों पर एक नवीन शिक्षा की खोज की गयी।
नयी कहानी की आंतरिक माँग ही यही थी कि उसकी यात्रा जीवन से साहित्य की ओर हो। जो कुछ जीवन में है, उसकी आंतरिक शक्ति के रूप में उसे अभिव्यक्त किया जाए और भविष्य से सम्पृक्त रखा जाए। वैचारिक धरातल पर नयी कहानी लघु मानवतावादी, क्षणवादी, विजातीय बौद्धिकता को स्वीकार नहीं कीजिए- वह अपने राष्ट्रीय-जातीय परिवेश के प्रति प्रतिबद्ध है और उसका मूलस्रोत है- जीवन, अपनी समस्त जटिलताओं और संश्लिष्टताओं के साथ।
यह बदला हुआ आग्रह ही वह बिंदु है, जहाँ से कहानी मोड लेती है और वह मोड ही ‘नयी कहानी’ के नाम से अभिहित किया गया।” इस प्रकार पुरानी और नयी कहानी में कथ्य और शिल्प दोनों को ही लेकर मूलभूत अंतर है।
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