राष्ट्र पर जब-जब संकट का कालमेघ छाता है तब-तब प्रभु स्वयं या अपने प्रधान प्रतिनिधि को राष्ट्ररक्षा के लिए भेजते हैं। हमारा देश भी जब अँगरेजों के अत्याचार से कराह रहा था, जब भारत-माता स्वतंत्रता-देवी के रूप में परतंत्रता के कारगार में बंदिनी थी, तब उन्हें मुक्त करने के लिए भगवान ने महात्मा गाँधी के रूप में अवतार ग्रहण किया।
महात्मा गाँधी का जीवन परिचय
धन्य है 2 अक्तूबर, 1869 का वह शुभ दिन, जब मोहनदास का जन्म गुजरात के पोरबंदर नामक स्थान में हुआ था। आज पोरबंदर हमारे लिए अयोध्या, मथुरा, कपिलवस्तु आदि की तरह पवित्र तीर्थस्थान बन चुका है। मोहनदास के पिता का नाम करमचंद था। उनकी वंशगत उपाधि ‘गाँधी’ थी।
गुजरात तथा दक्षिण के प्रदेशों में अपने नाम के आगे पिता का नाम लगाने का प्रचलन है और उसके आगे वंशगत उपाधि लगाई जाती है, इसलिए उनका पूरा नाम हुआ मोहनदास करमचंद गाँधी। किन्तु, सारा संसार उन्हे ‘गाँधी’ के नाम से ही जानते हैं। राष्ट्र की प्रत्येक संतान को उन्होंने बाप की दृष्टि से देखा- इसलिए वे बापू कहलाए, ‘राष्ट्रपिता‘ शब्द से संबोधित हुए।
महात्मा गाँधी शिक्षा का श्रीगणेश पोरबंदर की पाठशाला में हुआ। उनका विवाह तेरह वर्ष की कच्ची उम्र में ही कस्तूरबा से हो गया। उनकी दृष्टि में वे बालक बड़े भाग्यवान है, जिनका विवाह इस कच्ची उम्र में नहीं होता। 1887 ई० में प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद वे उच्य शिक्षा के लिए भावनगर के श्यामलदास कॉलेज में भेजे गए। किन्तु वहाँ उनकी मन रम ना सका। उनके भाई लक्ष्मीदास जी राजकोट के मशहूर वकील थे।
उन्होंने अपने छोटे भाई को विलायत भेजकर बैरिस्टर बनाना चाहा, किन्तु बीच में ही माँ पुतलीबाई अवरोध बनकर खड़ी हो गई। आखिर माँ के सामने मदिरा, मांस तथा परस्त्रीसंसर्ग के वर्जन की प्रतिज्ञा लेकर महात्मा गाँधी विलायत गए। वहाँ उसके जीवन-पथ में अनेक बाधाएँ आई, किन्तु वे सबको झेलते हुए अपने प्रण-निर्वाह में सफल हुए।
विलायत से लौटकर उन्होंने बंबई में वकालत शुरू की। संकोची स्वभाव और केवल सत्यभाषण के कारण उनकी वकालत चल न सकी। इसी बीच उन्हे ‘दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी’ की ओर से एक मुकदमे की पैरवी के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा। सिर पर पगड़ी रहकर जब आप अदालत गए, तब पगड़ी उतारने के लिए कहा गया। जब आप रेलगाड़ी से यात्रा करने लगे, तब आपको टिकट रहने पर भी प्रथम श्रेणी में यात्रा नहीं करने दिया गया।
गाँधीजी के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन
गोरों की रंग भेद नीति के करण दक्षिण अफ्रीका में रेल, होटल सड़क- सर्वत्र भारतीयों का अपमान किया जाता था। और निरीह भारतीय अपमान का जहर पीकर भी रह जाते थें। गाँधी जी की सामाजिक क्रांतिकारी जीवन का शुभारंभ यही से हुआ। यही उनकी प्रथम बार दक्षिण अफ्रीका के भारतवासियों को नागरिक अधिकार दिलाने के लिए सत्याग्रह का पांचजन्य फूँका।
महात्मा गाँधी में सेवा भाव कूट-कूटकर भरा था। वे शत्रुओं की भी सेवा तथा सहायता निस्संकोच करते थें। 1897 ई० से 1899 ई० तक ब्रिटिश-सरकार के विरुद्ध छेड़नेवाले बोआर-युद्ध में महात्मा गाँधी ने घायलों की सेवा की और अपनी-अपनी जान हथेली पर लेकर वे इसके लिए लड़ाई के मैदान में भी गए। 1897 ई० और 1899 ई० में भारत में जब अकाल पड़ा। तब उन्होंने अकाल-पंडितों की सहायता के लिए दक्षिण अफ्रीका चंदा किया।
डरबन में प्लगे के मरीजों की सहायता की उनके कार्यों से प्रसन्न होकर अँगरेज-सरकार ने उन्हे, ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि प्रदान की। भारत वर्ष लौटने पर गाँधी जी यहाँ की राजनीति में पूरी तरह कूद पड़े। उन्होंने 1914 ई० के प्रथम विश्वयुद्ध में अँगरेजों का साथ दिया। उन्हे विश्वास था की युद्ध के पश्चात अँगरेज भारत को अवश्य आजाद कर देगें, किन्तु बात उलटी हुई। उनका दमनचक्र जोरों से चला।
रॉलेट ऐक्ट तथा अमानुषी जालियाँवाला बाग-कांड 1919 ई० में हुआ। इस हत्याकांड से क्षुब्ध होकर महात्मा गाँधी ने असहयोग-आंदोलन चलाया और इस आंदोलन में सारा राष्ट्र कूद पड़ा। 1930 ई० में देशव्यापी नमक-आंदोलन हुआ। 1931 ई० में गाँधी जी गोलमेज कॉन्फ्रेंस में भाग लेने लंदन गए, किन्तु वहाँ से निष्फल लौटे। 1937 ई० में भारत के विभिन्न प्रांतों में अंतरिम सरकारें बनी।
1939 ई० में द्वितीय महायुद्ध छिड़ गया। अँगरेजों ने भारतवासियों की राय की परवाह किए बीना भारत को युद्ध में सम्मिलित राष्ट्र घोषित कर दिया। प्रथम विश्वयुद्ध में अँगरेजों की सहायता का पुरस्कार महात्मा गाँधी पा चुके थें, इसलिए इस बार उन्होंने सहायता देने से इनकार कर दिया। उनकी राय थी कि इसी शर्त पर सहायता की जा सकती है कि अँगरेज भारत को पूर्णरूपण स्वतंत्र कर दें।
महात्मा गाँधी की जीवनी
द्वितीय महायुद्ध के पश्चात अँगरेजों की राजनीतिक स्थिति डावाँडोल हो गई। युद्ध के पूर्व ये सारे संसार की सबसे बड़ी शक्ति थे। युद्ध के पश्चात ये तिसरे नंबर पर आ गए।1942 ई० में ‘भारत छोड़ो’ का नारा दिया गया। हमारे नेता जेल के सिंकचों में रखे गए, किन्तु सारा देश हुंकार कर उठा। फिर, किसकी शक्ति थी इस समुद्री तूफान की गति को रोक दे। आखिर विवश होकर 15 अगस्त 1947 को अँगरेजों को भारत को स्वाधीन कर देना पड़ा।
महात्मा गाँधी का स्वप्न साकार हुआ। किन्तु, इसी बीच अँगरेजों की कूटनीति ने सांप्रदायिक दंगों के विषवृक्ष उगाए। गाँधी जी ने नोआखाली की पाँव-पयादे यात्रा की। अभी मोहन महाभारत-संग्राम की रास सँभालते-सँभालते हाथ की रगड़ मिटा भी नहीं पाए थे, चैन की साँस भी न ले पाए थे कि दिल्ली के बिड़ला-भवन में 30 जनवरी 1948 को सांप्रदायिकता के व्याध ने तीन गोलियों से उनकी छाती छलनी कर दी। महात्मा गाँधी का क्षणभंगुर भौतिक
शरीर नष्ट हो गया, किन्तु उनकी अक्षय आत्मा, उनके निर्मल विचार अमर है।
महात्मा गाँधी का समग्र जीवन राष्ट्र की बलिवेदी पर अर्पित दिव्य सुगंधित सुमन था। उनका सारा जीवन हो सत्य का प्रयोग था। सत्यरूपी सूर्य की किरण से ही उनका पथ प्रोदभासित हुआ। वे विभिन्न क्षेत्रों से मधु बटोरते रहे और अपने साधनापथ पर बढ़ते रहें। वे ‘भगवद् गीता’, ‘रामचरितमानस‘ रसिकन की पुस्तक ‘अन्य टू दी लास्ट’ , स्वामी विवेकानंद के ‘राजयोग’ तथा पतंजलि के ‘योगसूत्र’ से पाथेय लेकर ही संग्रामपथ पर निकल पड़े थे।
महात्मा गाँधी मानवमात्र के हितचिंतक थे। वे उनके तन के चितेरे नहीं, वरन् आत्मा के महान शिल्पी थे। उनके आदर्शपुरुष थे श्री राम और उनका आदर्श राज्य था रामराज्य। मानवता को सँवारने के लिए विश्ववंद्य महामानव बापू ने आत्मबलिदान किया। यही कारण है कि उनकी जन्मशताब्दी पर भिन्न-भिन्न प्रकार के आयोजन संसार-भर में हुए।