रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थिति व रीतिकाव्य की साहित्यिक परिस्थिति

रीतिकाल में अधिकांश साहित्य मुगल संस्कृति से प्रभवित राज्याश्रय में रचा गया। रीतिकाल में सम्राट या बादशाह दरबारी संस्कृति के प्रधान केन्द्र थे और उन्होंने कवियों और कलाकारों को आश्रय दिया हुआ था। इस काल के कवियों ने संस्कृत में लिखे गये रीति ग्रंथों के अनुरूप हिंदी में लक्षण ग्रंथों की रचना की।

रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियाँ

रीतिकालीन हिंदी कविता का सृजन और प्रस्तार दरबारी संस्कृति के आश्रय में हुआ। दरबारी संस्कृति से अभिप्राय उच्चवर्गीय और उच्चवर्गीय संस्कृति से हैं जिसे सामंतवादी संस्कृति भी कहा जा सकता है।

मध्ययुग में अकबर, जहांगीर और शाहजहां की उदारतावादी नीति तथा संतो, सूफियों के उपदेशों के परिणामस्वरूप हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों का मिलन हुआ। उदाहरणस्वरूप काव्य प्रेमी शासक मुस्लिम अनेक हिंदू रचनाकारों सुंदरदास, चिंतामणि, इत्यादि को अपने आश्रय दिया था। इस प्रकार मध्यकाल में मिली-जुली संस्कृति का विस्तार हुआ।

पुरातन काल में संस्कृति का विकास मन्दिरों, देवालयों के द्वारा होती रहा और रीतिकाल में इनसे दरबार भी आकर जुड़ गए क्योंकि मध्य काल में दरबार शक्ति, सत्ता और सम्पत्ति के केन्द्र बन गए थे।

रीतिकाल में सम्राट या बादशाह दरबारी संस्कृति का प्रधान केन्द्र थे। उन्होंने कवियों और कलाकारों को आश्रय दिया हुआ था। तत्कालीन दरबारी संस्कृति की राजरूचि का केन्द्र श्रृंगार और काव्यशास्त्र था। इस प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में राजाओ की श्रृंगारिक रूचि विद्यमान थी और उनका शास्त्रीयता के प्रति आग्रह था। इसी कारण कुछ सर्वागनिरूपक तथा कुछ विशिष्टांग निरूपक ग्रंथ लिखे गये।

इसके अतिरिक्त सामंती वैभव और ऐश्वर्य की पराकाष्ठा का समाज था। इस काल में राज्याश्रित कवियों ने आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशस्ति की है। उदाहरणस्वरूप छत्रसाल की वीरता के वर्णन के लिए मतिराम और भूषण विख्यात हैं। तत्कालीन रीतिकालीन दरबारी संस्कृति में उन्मुक्त विलास ओर उन्मुक्त भोग की भी स्वीकृति थी जिसके फलस्वरूप भारतीय पारिवारिक व्यवस्था और मर्यादा की प्रतिष्ठा खतरे में पड़ गई थी। इस काल में कलागत अभिव्यक्ति शास्त्रीयता और आलंकारिकता से मंडित थी। वस्तु की अपेक्षा कला को महत्व और प्रधानता प्राप्त थी।

उत्तर मध्यकालीन सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करने के पश्चात कहा जा सकता है कि रीतिकालीन संस्कृति का विकास राजदरबारो में हुआ। तत्कालीन कवि तथा कलाकार राज्याश्रित थे। इन्होंने अपने आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशस्ति की तथा उनकी मनोवृत्ति के अनुसार श्रृंगारिक ओर आलंकारिक रचनाये रची।

मुगल सम्राट तथा राजसी घराने के लोग पहरावे के प्रति विशेष सजग थे तथा अच्छा खाना खाते थे जबकि निम्न वर्ग के लोग सादा जीवन व्यतीत करते थे। इसके अतिरिक्त इस युग की विशिष्टता इस युग में हिंदू-मुस्लिम संस्कृति का मिलन है। 

रीतिकाव्य की साहित्यिक परिस्थिति

रीतिकाल के राजदरबारों में कलात्मकता, आलंकारिक चमत्कार अथवा पाण्डित्य प्रदर्शन का इतना बोलबाला था कि वहां उसी कवि को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था जिसे अलंकारशास्त्र का पूर्ण ज्ञान हो और अंलकारों के लक्षण कंठस्थ हो तथा जिस के काव्य में अलंकारों के चमत्कार को सुलझाने में सभासदों की बुद्धि चकरा जाये।

उस युग में फारसी के राजकीय भाषा होने के कारण इसकी अलंकार प्रधान शैली का प्रभाव सामान्यतः प्रत्येक भाषा पर पड़ा। उचित चमत्कार तथा मार्मिकता जैसे गुणों से युक्त फारसी कविता के सामान्तर हिंदी के रीतिकालीन कवियों ने चमत्कार प्रधान तथा अत्युधिक पूर्ण ब्रजभाषा में कविता को जन्म दिया।

हिंदी के रीतिकालीन कवि चमत्कार के उपकरणों के लिए फारसी की अपेक्षा संस्कृत की ओर उन्मुख हुए क्योंकि भारतीय भाषा होने के कारण संस्कृत काव्यशास्त्र में बताये गये सौंदर्य के उपकरण ब्रजभषा के अधिक अनुकूल पड़ते थे। इस लोगों ने इन उपकरणों का निरूपण इतना मनोयोगपूर्ण किया कि आज इस पद्धति अथवा रीति के कारण ही इस युग को रीतिकाल संज्ञा दिया जाना अधिक उपयुक्त समझा जाता है।

इस प्रकार के ग्रंथों की रचना करने के मूल में इन कवियों के संभवतः दो उद्देश्य थे। पहला, अपने सामर्थ्य का प्रदर्शन और दूसरा, इस युग के काव्य रसिक समुदाय को इनका अनिवार्य ज्ञान कराना जिससे वे काव्य गोष्ठियों में इन शास्त्रीयों सौंदर्य के उपकरणों के आधार पर कविता को दाद दे सके। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस परंपरा के साहित्य की रचना शाहजहां के शासन काल से लेकर आगामी दो ढाई सौ वर्ष तक अविकल रूप से होती रही।

औरंगजेब का साहित्य के प्रति बिल्कुल रूझान नहीं था। अतः उनके दरबार में कवियों को आश्रय प्राप्त नहीं हुआ परंतु इसका प्रभाव इसलिए विशेष रूप से ना पड़ सका। क्योंकि राजा और नवाब उन्हें आश्रय देते ही रहे। इधर जन समुदाय में ऐसे कवि भी विद्यमान थे जो स्वतंत्र रूप से काव्य रचना करते थे। अतः उनकी रचनाएं काव्यशास्त्रीय उपकरणों से अछूती रही। यही कारण है कि इनका काव्य उक्त कवियों के काव्य की तुलना में अधिक प्रभावी हैं परंतु ऐसी रचनाएं बहुत कम देखने को मिलती हैं, अधिकांश रचनाएं राज्याश्रय में रचे जाने के कारण श्रृंगारिकता युक्त है।

रीतिकाल में भक्तिकाल की भक्ति भावना और माधुर्य उपासना आश्रयदाताओं और युग की परिस्थितियों के कारण रीतिकालीन कविता में उन्मुक्त श्रृंगार तथा कामना बल साधन बन गई। इस काल के काव्य में राधा-कृष्ण साधारण नायक-नायिका बन कर रह गये। रीतिकालीन श्रृंगारिक कविता को विकसित और प्रफुल्लित करने में तत्कालीन परिस्थितियों के साथ-साथ संस्कृत के श्रृंगारी मुक्तक काव्य परंपरा और संस्कृत के लक्षण ग्रंथों ने भी योगदान दिया।

इसे भी पढ़ें: रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ, रचनाएँ और प्रवृत्तियाँ

Leave a Comment

Exit mobile version