हिन्दी साहित्य में आपने कई तरह के काल के बारे में सुना होगा, जैसे भक्तिकाल, रीतिकाल, आदि। दरअसल, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है- वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रितिकाल तथा आधुनिक काल। और आज हम हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग, भक्तिकाल का समय, विभाजन, प्रमुख कवि और विशेषताएँ के बारे में बात करने वाले हैं।
वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि विक्रम सम्वत् 1050 से 1375 तक का समय वीरगाथाकाल में, 1375 से 1700 तक का समय भक्तिकाल में, 1700 से 1900 तक का समय रितिकाल में तथा 1900 से अब तक का समय आधुनिक काल में आता है। और सभी समयों में एक-से-बढ़कर एक रचयिता हुए हैं।
भक्तिकाल किसे कहते हैं?
भक्तिकाल हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसका समय वि.सं 1375 से 1700 तक का है। सूर, तुलसी, कबीर, जायसी ये चारों महाकवि भक्तिकाल में ही उत्पन्न हुए। इसी काल ने हिंदी हिन्दी साहित्य गगन के सूर्य और चंद्रमा को जन्म दिया।
यद्यपि इस काल में प्रेममार्गी तीन धाराएँ प्रवाहित हुईं, तथापि इन तीनों धाराओं में एक ही भक्ति का अंतःस्रोत प्रचाहित होता हुआ दृष्टिगोचर होता है इसीलिए इसको भक्तिकाल कहा जाता है। प्रेम भी भक्ति का ही एक रूप है।
भक्ति काल का विभाजन
भक्ति काव्य दो धाराओं में विभक्त हुआ, एक निर्गुण धारा और दूसरी सगुण धारा।
- निर्गुण धारा के प्रवर्त्तकों ने निराकार भगवान की उपासना पर बाल दिया है।
- निर्गुण धारा भी ज्ञानमार्गी तथा प्रेममार्गी धाराओं में विभक्त हो गई।
- ज्ञानमार्गी शाखा के प्रमुख कवि कबीर थे तथा प्रेममार्गी शाखा के मालिक मुहम्मद जायसी।
- इसी प्रकार सगुण धारा के कवियों ने साकार भगवान की उपासना पर बाल दिया।
सगुण धारा भी कृष्ण-भक्ति शाखा और राम-भक्ति शाखा में विभक्त हो गई।
कृष्ण-भक्ति के प्रमुख कवि सूर थे तथा राम-भक्ति शाखा के तुलसी। इन दोनों महकवियों ने साहित्य की इतनी श्रीवृद्धि की जितनी किसी काल में नहीं हुई। भक्ति-काल के सभी कवि स्वच्छंद प्रकृति के थे, उन्हें राज्याश्रय बिलकुल पसंद नहीं था, उन्होंने जो कुछ लिखा ‘स्वांतः सुखाय’ ही लिखा।
भक्तिकाल के प्रमुख कवि
निर्गुण पंथ की ज्ञानाश्रयी शाखा हिंदुओं की ओर से हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित करने की इच्छा का फल था। इस शाखा के प्रमुख कबीर थे। संत कवियों ने निर्गुणवाद में हिंदू और मुसलमानों की एक-दूसरे के निकट आने के सम्भावना देखी। मुसलमान लोग एकेश्वरवाद के मानने वाले थे, वे लोग देवी-देवताओं की पूजा में विश्वास नहीं रखते। वे बहुईश्वरवाद के विरुद्ध थे।
संत कवियों ने निर्गुणवाद के आधार पर राम और रहीम की एकता स्थापित करके एवं हिंदू और मुसलमानों की रूढ़ियों का विरोध करके दोनों जातियों में मैत्री सम्बंध उत्पन्न कराने का प्रयत्न किया। ज्ञानमार्गी साहित्य में बाह्याडंबरों के विरोध में लिखा गया। मूर्ति-पूजा, तीर्थ-यात्रा आदि का स्पष्ट विरोध किया गया। आत्मा और परमात्मा के मिलने को प्रेम और प्रेयसी के मिलने का रूप प्रदान करके कुछ श्रिंगारिक रचनाएँ भी हुईं। इन कवियों ने जाती-पाँति के बंधनों का घोर विरोध किया।
हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग- भक्ति काल
भक्तिकाल के प्रेममार्गी कवियों ने मुसलमान होते हुए भी प्रेमगाथाओं का आश्रय लेकर मानव हृदय को स्पर्श करने वाली रचनाएँ कीं। ये लोग ज्ञानमार्गी कवियों की भाँति हिंदू-मुसलमानों के खंडन-मंडन के पचड़े में नहीं पड़े और न उन्होंने किसी को बुरा-भला ही कहा। इसीलिए उनका काव्य अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय हुआ।
प्रेममार्गी कवियों के काव्य, भारतीय चरित्र काव्यों की सर्गबद्ध शैली में न होकर फ़ारसी के मनसबियों के ढंग पर थे। इनकी काव्य भाषा अवधी थी, दोहा और चौपाइयों में इनकी रचना हुई थी। इनमें भौतिक प्रेम द्वारा ईश्वरीय प्रेम का प्रतिपादन किया गया है। प्रेममार्गी कवियों का प्रयास भी हिंदू और मुसलमानों को एक-दूसरे के समीप लाने में सहायक सिद्ध हुआ।
सूफ़ी लोग गुरु को अधिक महत्ता देते थे। ये लोग ईश्वर और जीव का सम्बंध भय का नहीं अपितु प्रेम का मानते थे। इनका झुकाव सर्वेश्वरवाद की ओर था। ये लोग संगीत प्रेमी थे। इस शाखा के प्रमुख कवि मालिक मुहम्मद जायसी थे। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘पद्मावत’ में राजा रतनसेन और सिंहलद्वीप की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम का वर्णन है। इन दोनों का संयोग हीरामन होते ने कराया था। इस कथा के माध्यम से प्रेम साधना द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग प्रदर्शित किया गया है, भौतिक प्रेम के साथ-साथ आध्यात्मिक प्रेम का सुंदर समन्वय है।
कृष्ण-भक्तिकाल की विशेषताएँ
कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण की पावन लीलाओं का वर्णन किया। कृष्ण के लोकरंजक और लोकरक्षक दोनों रूप थे तथापि भक्तिकाल के कवियों की रुचि लोकरंजक रूप की ओर रही। बल्लभाचार्य की बालकृष्ण उपासना पद्धति तथा जयदेव और विद्यापति की गति पद्धति को ही उन्होंने अपनाया।
सूरदास जी कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवि थे। ये महाप्रभु बल्लभाचार्य के शिष्य थे, उन्हीं की प्रेरणा से इन्होंने भगवान के साकार रूप का गान किया। ये लोग पुष्टिमार्गी कहलाते थे। भगवान के पोषण या अनुग्रह से ही उनका सामीप्य प्राप्त हो सकता है, इन लोगों का विचार था।
कृष्ण-भक्ति काव्य ब्रज भाषा में लिखा गया, जो बड़ा ही ललित और श्रुति मधुर है। उसमें माधुर्य और प्रसाद गुण पराधन हैं। कृष्ण-काव्य रचयिताओं ने भ्रमरगीत वियोग श्रृंगार का उत्कृष्ट उदाहरण है। भक्तिकाल में श्रिंगार, वात्सल्य और शांत इन तीनों रसों में ही अधिकांश काव्य लिखा गया।
राम-भक्तिकाल की विशेषताएँ
राम-भक्ति शाखा के कवियों ने राम के लोक-रक्षक रूप को जनता के सामने प्रस्तुत किया। राम-भक्ति काव्य की रचनाएँ ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं में हुईं। इनमें राम के सम्पूर्ण जीवन के सभी पक्षों का चित्रण हुआ। इसके प्रमुख कवही गोस्वामी तुलसीदास जी थे।
गोस्वामी जी के काव्य ने भक्ति के साथ शील, आचार, मर्यादा और लोकसंग्रह का संदेस सुनाकर मृतप्राय हिंदू जाती में एक अपूर्व दृढ़ता उत्पन्न कर दी। उन्होंने अपनी अपूर्व प्रतिभा से वर्ण-व्यवस्था का समर्थन करके हिंदुओं में मुसलमानों के धर्म के प्रचार को रोका।
गोस्वामी जी ने हिंदू धर्म के मूल सिद्धांतों को भाषा में अवतीर्ण करके सर्व-सुलभ बनाया, शैव तथा वैष्णवों के पारस्परिक मतभेदों को दूर करके संगठित किया। ये अपूर्व समन्वयवादी थे। वास्तव में राम-भक्ति काव्य का हिंदू समाज पर बहुत गम्भीर प्रभाव पड़ा।
भक्तिकाल में निर्गुण सम्बन्धी तथा रामकृष्ण सम्बन्धी काव्य लिखे गये, परंतु जितना विस्तार कृष्ण काव्य का है उतना राम काव्य का नहीं। उसका कारण था माधुर्य एवं उनका लोकरंजक रूप। भक्ति काव्य के कलापक्ष एवं भावपक्ष दोनों ही अपनी चरम सीमा पर हैं। ज्ञानमार्गी कवियों में कला-पक्ष की थोड़ी-सी कमी थी। इसका कारण था कि उनकी प्रवृत्ति समाज सुधार की ओर अधिक उन्मुख थी, भाषा के कृत्रिम सौंदर्य की ओर उन्होंने अधिक ध्यान नहीं दिया। गोस्वामी जी ने भी इसी बात का समर्थन किया था।
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