हिंदी उपन्यास का उद्भव, विकास और साहित्य: Hindi Upanyas की विशेषताएँ और प्रमुख प्रवृत्तियाँ

उपन्यास गद्य-लेखन की एक विधा है, जिसके लेखन में प्रमुख तौर पर सामाजिक जीवन की व्याख्या होती है। आज के इन विस्तृत लेख में हम हिन्दी उपन्यास के उद्भव और विकास के बारे में तो बात करेंगे ही, साथ ही हिंदी उपन्यास की पृष्ठभूमि, विशेषताओं और प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख करेंगे।

हिन्दी उपन्यास की पृष्ठभूमि

हिंदी उपन्यास-साहित्य के लेखन का प्रारम्भ 19वीं शताब्दी के सातवें दशक के उपरांत हुआ। यद्यपि भारत में कथा-साहित्य की परम्परा अत्यंत प्राचीन और समृद्ध थी तथापि जिस रूप में हिंदी उपन्यास साहित्य का जन्म और विकास हुआ उसका इतिहास उतना पुराना नहीं है।

हिंदी लेखकों या उपन्यासकारों को उपन्यास लेखन की प्रेरणा सीधे-सीधे पश्चिमी उपन्यासकारों और उनके उपन्यासों से मिली। इस अर्थ में हिंदी उपन्यास साहित्य को ‘आधुनिक युग की देन’ कहना ज़्यादा उपयुक्त है। उपन्यास साहित्य के अस्तित्व में आ जाने के बाद उस पर संस्कृत साहित्य की आख्यायिका आदि का प्रभाव पड़ा हो पर यह वास्तविकता है कि उसके जन्म में इसका किंचित भी योगदान नहीं है।

हिंदी में प्रथम कहानी की तरह हिंदी के प्रथम उपन्यास और उपन्यासकार का प्रश्न अत्यंत विवादास्पद दिखता है। हिंदी साहित्य में उपन्यास-लेखन का प्रारम्भ मौलिक सृजन की अपेक्षा विभिन्न भाषाओं में रचित उपन्यासों के अनुवादों के माध्यम से हुआ जान पड़ता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि “इस द्वितीय (गद्य) उत्थान में आलस्य का जैसा त्याग उपन्यासकारों में देखा गया, वैसा किसी अन्य वर्ग के लेखकों में नहीं।” और वस्तुतः उपन्यास लेखन के क्षेत्र में आलस्य-त्याग की यह चेतना सर्वप्रथम अनूदित उपन्यासों के रूप में प्रस्फुटित होते हुए दिखाई देती है।

हिंदी का प्रथम उपन्यास और उपन्यासकार

वैसे कोई-कोई भारतेंदु को ही हिंदी के प्रथम उपन्यास-लेखन और प्रवर्तक का श्रेय देना चाहते हैं। उनकी कृति ‘पूरन प्रकाश और ‘चंद्रप्रभा’ को हिंदी का प्रथम उपन्यास माना है। पर वास्तव में भारतेंदु जी की यह कृति उनकी मौलिक रचना न होकर मराठी से अनुदित है।

किंतु हिंदी में उपन्यास लेखन की परम्परा का सूत्रपात अनुवादों से मानते हुए आचार्य शुक्ल रामकृष्ण वर्मा को उनके द्वारा अनुदित उपन्यासों के कारण, हिंदी का प्रथम उपन्यास लेखक होने का गौरव प्रदान करना चाहते हैं। इस परम्परा का प्रारम्भ सन 1951 से रामकृष्ण वर्मा के अंग्रेजी उपन्यासों के हिंदी अनुवादों के माध्यम से हुआ। तत्पश्चात् इस अनुवाद कार्य में कार्तिक प्रसाद खत्री सामने आए।

गोपालराम गहमरी ने भी बंगला से अनुवाद करके इस परम्परा को आगे बढ़ाया। हिंदी उपन्यास के इस ऐतिहासिक विकासक्रम को स्पष्ट करते हुए शुक्ल जी हिंदी के प्रथम उपन्यासकार के रूप में भारतेंदु जी को स्वीकृति प्रदान करते नजर नहीं आते। परंतु वार्श्नेय जी संकेत देते हैं कि “भारतेंदु ने पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक उपन्यासों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने स्वयं अनुवाद किया और दूसरों को इस ओर उत्साहित किया।” इससे स्पष्ट होता है कि वे भारतेंदु को हिंदी का प्रथम उपन्यास लेखक मानते हैं।

डॉ. रामविलास शर्मा का तो ऐसा स्पष्ट मत है। “हिंदी साहित्य कोश” (प्रथम भाग) में उल्लिखित है कि “इसी समय भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मराठी से अनुदित ‘पूरन प्रकाश और चंद्रप्रभा’ नामक हिंदी का प्रथम सामाजिक उपन्यास प्रस्तुत किया।” लेकिन कतिपय इतिहास लेखकों का मत है कि भारतेंदु के समकालीन लेखक लाला श्रीनिवासदास हिंदी के प्रथम उपन्यास लेखक हैं और उनका उपन्यास ‘परीक्षा गुरु’ हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है।

शुक्ल जी अनुदित उपन्यासों की परम्परा का ख़्याल करते हुए रामकृष्ण वर्मा और कार्तिक प्रसाद खत्री को यह श्रेय देना चाहते हैं। परंतु डॉ. श्रीकृष्ण का विचार है कि दरअसल :देवकीनन्दन खत्री के ‘चंद्रकांता संतति’ के पहले हिंदी में उपन्यास के साहित्य रूप की प्रतिष्ठा न हो सकी।” लेकिन लाला श्रीनिवास दास उनसे पहले के उपन्यासकार हैं और ‘परीक्षा गुरु’ एक बड़ी सीमा तक, औपन्यासिक तत्त्वों से समन्वित हिंदी का प्रथम मौलिक उपन्यास है। अतः इस उपन्यास को हिंदी का प्रथम उपन्यास कहना बिलकुल उपयुक्त है।

भारतेंदुयुगीन हिंदी उपन्यास

भारतेंदु काल में जो अन्य लेखन उपन्यास-लेखन की ओर प्रवृत्त हुए उनमें किशोरी लाल गोस्वामी, राधारमण गोस्वामी, कार्तिक प्रसाद खत्री, गोपालराम गहमरी, राधाकृष्ण दास, बालमुकुंद शर्मा, गोकुल नाथ शर्मा आदि प्रमुख हैं। इन उपन्यास लेखकों ने सामाजिक ऐतिहसिक वृत्तों के आधार पर प्रेम, शौर्य, सतीत्व, जातीय गौरव और राष्ट्रीयता की प्रखर चेतना से समन्वित उपन्यास लिखे।

सामाजिक उपन्यासों की ही एक शाखा के रूप में नैतिक शिक्षाओं से पूर्ण उपन्यासों की परम्परा विकसित हुई। नैतिक शिक्षपरक अनेक परम्परा की सर्जना हुई। इसमें बालकृष्ण भट्ट, रत्नचंद प्लीडर आदि के उपन्यासों ने इस साहित्यिक विद्या का भंडार काफ़ी समृद्ध बनाया।

इस युग के प्रसिद्ध उपन्यासों में ‘दीप निर्वाण’, ‘सरोजिनी’, ‘दुर्गेशनंदिनी’, ‘मधुमती’, ‘राधारानी’, ‘त्रिवेणी’, ‘स्वर्गीय कुसुम’, ‘हृदयहारिणी’, ‘लवंगलता’, ‘नूतन ब्रह्मचारी’, ‘सौ अजान एक सुजान’, ‘नूतन चरित्र’, ‘सुख शर्वरी’, ‘स्वतंत्र रमन और परतंत्र लक्ष्मी’, ‘ धूर्त रसिक लाल’, ‘बड़ा भाई’, ‘सास पतोहू’ एवं ‘दिनानाथ’ आदि उल्लेख्य हैं। इन उपन्यासों में राष्ट्र प्रेम का प्रचार, प्रचलित सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं के मूलोच्छेदन का उद्देश्य ही प्रमुख है। गुण-दोषों का ठीक-ठाक विवेचना करना इन उपन्यासों का अंतिम लक्ष्य है।

तिलस्मी, अय्यारी और जासूसी उपन्यास: भारतेंदु युग में ही ‘तिलस्मी अय्यारी और जासूसी उपन्यास लेखन की पुख़्ता नींव पड़ चुकी थी।” इस प्रवृत्ति की स्पष्ट झलक किशोरी लाल गोस्वामी और गोपालराम गहमरी के उपन्यासों में मिलती है। ऐसे उपन्यासों में चमत्कार प्रदर्शन, कौतूहल वृद्धि, जादू-टोना, घटना-वैचित्त्य, प्रेम-प्रसंग, मिलन की उत्सुकता, विश्व की व्याकुलता, कथानक की जटिलता, चरित्र-संघटन और सुखान्तता की प्रवृत्ति मिलती है।

‘चंद्रकांत संतति’ यद्यपि इसी तिलस्मी अय्यारी और जासूसी स्रोत से लिखा गया उपन्यास है तथापि ‘पहले मौलिक उपन्यास लेखक, जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई’ वे थे देवकी नंदन खत्री। उपन्यासकला की दृष्टि से यह उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ हिंदी का प्रतहम मौलिक और साहित्यिक उपन्यास है। यद्यपि शुक्ल जी किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यास को प्रथम बार साहित्यिक कोटि की रचनाएँ मानते हैं तथापि इस सहित्यिकता का प्रथम प्रस्फुटन ‘यंदुकांता संतति’ में ही हुआ था।

भारतेंदु काल में जासूसी, अय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों की ही प्रधानता रही और इन उपन्यासों ने जनसाधारण का मनोरंजन भी भरपूर किया परंतु साहित्यिक समाज का मनोविनोद नहीं हो सका। इस काल में अनुवादों को छोड़कर कथासृष्टि की दृष्टि से मौलिक प्रौढ़ और उच्च कोटि के उपन्यास, नहीं के बराबर लिखे गए हैं। लेकिन इसके बावजूद कहना पड़ता है कि ‘चंद्रकांता’ में जिस शिल्प तथा लोकप्रचलित कथाओं के स्रोत को ग्रहण किया गया, उससे ऐसे उपन्यासों में इतना कलात्मक सौंदर्य आ गया है कि तिलस्मी उपन्यासों को ही कलापूर्ण उपन्यासों का प्रथम स्वरूप मानना पड़ेगा।

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हिन्दी उपन्यास का उद्भव

नंददुलारे, वाजपेयी, प्रेमचंद, पूर्व के उपन्यासों का मूल्यांकन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि उपन्यास-लेखन की दृष्टि से यह संक्रांति काल है। ऐतिहसिक पौराणिक एवं सामाजिक वृत्तों के माध्यम से उपदेश प्रधान उपन्यास लिखना और भावुकतापूरन वातावरण पैदा करना इन उपन्यासकारों का अंतिम लक्ष्य था।

  • इन उपन्यासकारों के संस्कारों में रितिक़ालीन संस्कार अब भी अवशिष्ट था।
  • उनका साक्षात्कार सामाजिक प्रगति, जीवन की यथार्थता और नवीन सामाजिक चेतना से नहीं हुआ था।
  • इस संक्रांति काल से गुजरकर हिंदी उपन्यास एक ऐसे दौर में पहुँचता है जिसका शिलान्यास प्रेमचंद जी ने किया और जिससे हिंदी उपन्यासों को निश्चित कला रूप प्राप्त हुआ।
  • हिंदी उपन्यासों को अपनी आत्मा की पहचान हुई और उसने अपने उद्देश्य को पहचान कर उसकी पूर्ति की दिशा में नूतन अभियान किया।

अब तक हिंदी उपन्यासों की आविर्भावकालीन प्रवृत्तियों और स्वरूप को उद्घाटित और विवेचित करने का प्रयास किया गया है। उसके युगों के विभाजन और विकासात्मक चरणों को अब तक स्पष्ट नहीं किया जा सका था। हिंदी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में प्रेमचंद का पदार्पण एक ऐसी आधारभूत रेखा है जिसके आर-पार झांक कर हिंदी उपन्यास के विकास की सही दिशा को सरलतापूर्वक निर्दिष्ट किया जा सकता है।

अतः हिंदी उपन्यास लेखन को प्रेमचंदपूरन और उनके बाद के रचे गए उपन्यासों को प्रेमचंदोत्तरकालीन उपन्यासों के रूप में रेखांकित और मूल्यांकित करना ज़्यादा उपयुक्त है। यों कुछ उपन्यास आलोचकों ने स्वतंत्रतापूर्व और स्वातंत्र्योत्तरकालीन उपन्यास साहित्य के रूप में हिंदी उपन्यासों के विकास को देखने की सलाह दी है।

परंतु स्वातंत्र्यपूर्ण  उपन्यास कहने से जयदरतर ध्यान प्रेमचंद और उनके समकालीन अन्य उपन्यास लेखनों तक ही उलझकर रह जाता है और हिंदी के प्रारम्भिक उपन्यासों, प्रेमचंद के पूर्व हिंदी उपन्यासों की जो दशा थी, उस पर समुचित ध्यान नहीं जा पाता। अतः हिंदी उपन्यासों के प्रारम्भिक विकास को प्रेमचंदपूर्व और प्रेमचंदोत्तर उपन्यास साहित्य के रूप में परखना ज़्यादा सुगम एवं समीचीन प्रतीत होता है।

हिंदी उपन्यास का विकास

बीसवीं शताब्दी हिंदी उपन्यास लेखन की दृष्टि से चिरस्मरणीय है। इस काल में हिंदी उपन्यासों का विकास आश्चर्यजनक रूप से हुआ। इस नवीन साहित्यिक विधा ने साहित्य की अन्य विधाओं- कविता, नाटक, एकांकी, निबंध, आदि सभी को पीछे छोड़ दिया।

कला, विषय और उपादान- इन तीनों दृष्टियों से प्रारम्भिक युग के उपन्यासों की अपेक्षा इस युग का उपन्यास ज़्यादा समुन्नत बना। औपन्यासिक कला में कथा तत्त्वों के अलावे नाटकीय तत्त्वों-संवादों आदि का सामवेश हुआ।

किंतु हिंदी उपन्यास लेखन में कलात्मक उत्कर्ष का समय तब आया जब उपन्यासकार अंतर्वाह्य के संघर्षों और मनोवैज्ञानिक प्रविधियों को ग्रहण कर उपन्यास रचना की ओर प्रवृत्त हुआ। अब तक के उपन्यासों में अलौकिकता, रहस्य-रोमांच, घटना-बाहुल्य, चमत्कार और अतिरंजना आदि प्रमुख तत्त्व थे परंतु परवर्ती काल के उपन्यासों में मानव-जीवन और मानव मन का अत्यंत स्वाभाविक और सहज चित्रण होने लगा।

प्रेमचंद के उपन्यास तथा अन्य समकालीन उपन्यासकार

हिंदी में सहज, स्वाभाविक, यथार्थ और आदर्श के धूपछांही रंग से मिश्रित तथा पूर्णकलात्मक उपन्यासों का श्रीगणेश प्रेमचंद ने किया। प्रेमचंद ने अठारह उपन्यास लिखे। ‘सेवासदन’ उनका पहला उपन्यास है। उनके अन्य प्रमुख उपन्यासों में ‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’, निर्मला’, ‘प्रेमाश्रम’, ‘ग़बन’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘कायाकल्प’ और ‘गोदान’ हैं।

सेवासदन‘ में नागरिक जीवन और समाज की अत्यंत प्रचलित घृणित कुप्रथा वेश्यावृत्ति की समस्याओं और समाज के सफेदपोशों पर करारी चोट है। लेखक ने जीवन और समाज का संश्लिष्ट चित्रण किया है तथा अपनी ओर से एक समाधान भी प्रस्तुत किया है।

‘प्रेमाश्रम’ में ग्रामीण कृषक जीवन चित्रित है। इस ग्रामीण जीवन के केंद्र में किसानों और ज़मींदारों का संघर्ष है तथा इस संघर्ष का गाँधी जी के आदर्शवादी सिद्धांतों के अनुरूप आश्रमवादी निदान भी संकेतित हैं।

‘रंगभूमि’ में कथा-विधान अधिक जटिल हो गया है और ग्रामीण अस्तित्व को निगल जाने के जबड़े खोले शहरी औद्योगिक बुजुर्आ संस्कृति की भयानकता का चित्रण हुआ है। इसमें शहरी पूँजीवादी संस्कृति से सप्राण संघर्ष के प्रतीक हैं।

‘गोदान’ का कथ्य और तथ्य इससे भिन्न है। इस समय तक हमारी सामाजिक चेतना पर जो दस्तकें पड़ने लगी थीं उसी की धड़कनें इस उपन्यास में स्पंदित हो उठी हैं। यह उपन्यास एक ओर कृषि संस्कृति का ‘गोदान’ है, ‘शोकगीति’ है तो दूसरी और टूटते ग्रामीण परिवेश पर हावी होती नागर-सभ्यता के पथचिह्न भी संकेतित हैं। ‘गोदान’ के रचयिता प्रेमचंद ही वर्तमान और भविष्य के निर्देशक हैं।

हिन्दी उपन्यास की विशेषताएँ और प्रमुख प्रवृत्तियाँ

गोदान‘ के प्रेमचंद हिंदी उपन्यास के अतीत की चरम परिणति के पथचिह्न हैं, जिसके दोनों ओर पर्वत के दो भागों के उतार-चढ़ाव हैं।” डॉ. नंदकुमार राय का कहना है कि “प्रेमचंद हिंदी के धुरी तथा शीर्षस्थ उपन्यासकार हैं जिनमें एक ओर परम्परा के प्रति मोह है तो दूसरी ओर भविष्य के प्रति आस्था। वास्तव में इन दोनों से बढ़कर उनमें सामयिक बोध है तथा उससे सम्बद्ध यथार्थ के प्रति आधिकारिक आग्रह दिखाई पड़ता है।

इस प्रकार प्रेमचंद के उपन्यासों में अतीत वर्तमान और उनके अपने भविष्य का एकजुट भाव-बोध लक्षित होता है।” उनकी उपन्यासकला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि रोमांसपूरन सस्ते मनोरंजक, वायवी तथा काल्पनिक कथाओं से अलग हटकर उन्होंने अपने उपन्यासों को नया आधार और मोड़ दिया। यह परिवर्तन सामाजिक यथार्थवाद का है।

यही कारण है कि उनके उपन्यास का मूल सवार है- सामाजिक यथार्थ लेकिन इस सामाजिक यथार्थ की एक ख़ासियत यह भी है कि वह कोरे आदर्श से भी गुरेज़ नहीं करता। आदर्श की बैशाखी के बिना प्रेमचंद का यथार्थवाद चल नहीं पाता इसलिए उनके इस साहित्यिक और औपन्यासिक दृष्टिकोण को ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहा गया। प्रेमचंद के आस-पास ही जयशंकर प्रसाद ने अपने उपन्यास ‘कंकाल’ और ‘तितली’ लिखे जिनमें उनकी यथार्थवादी दृष्टि की नवीन सामाजिक अनुभूति मिलती है।

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