बुधिया रेखाचित्र का सारांश एवं चरित्र-चित्रण: माटी की मूरतें (रामवृक्ष बेनीपुरी)

रामवृक्ष बेनीपुरी द्वारा रचित ‘बुधिया’ शीर्षक रेखाचित्र एक सामान्य स्त्री का बचपन, जवानी और बुढ़ापे का मार्मिक चित्रण है। बेनीपुरी जी की हर कहानियों की तरह यह भी शिल्प विधा पर आधारित है। आइए जानते हैं ‘बुधिया’ रेखाचित्र का सारांश एवं चरित्र-चित्रण।

बुधिया रेखाचित्र का सारांश

‘बुधिया’ शीर्षक रेखाचित्र एक सामान्य स्त्री का बचपन, जवानी और बुढ़ापे का मार्मिक चित्रण है। बचपन की बुधिया चंचल और चुलबुली हैं, तो जवानी में हजारों जवानों की दिल की धड़कन है। लेखक बुधिया के बारे में कहते हैं- “वृंदावन में एक गोपाल और हजार गोपियाँ थी, यहाँ एक गोपी और हजार गोपाल है। अधेड़ उम्र में फटे हुए कपड़े चोली का नाम नहीं, बिखरे बाल, चेहरे पर झुर्रियां, सूखा हुआ चेहरा यह चित्र दिखाई देता है। फिर भी अपने बच्चों पर मातृत्व को लेखक वंदन करते हैं।”

बुधिया का बचपन कुछ ऐसा था–एक छोटी सी बच्ची। सात-आठ से ज्यादा की क्या होगी। कमर में एकरंगे की खंडुकी लपेटे, जिसमें कितने पैबंद लगे थे और जो मुश्किल से उसके घुटने के नीचे पहूँचती थी। समूचा शरीर नंग-धडंग, गर्द-गुबार से भरा। साँवले चेहरे पर काले बालों की लटें बिखरी उनमे धुल तो साफ थी और जुए भी जरूर रही होगी। एक नाक से पीला नेटा निकल रहा, जिसे वह बार-बार सुड़कने की कोशिश करती। उसकी बोली सुन और शायद यह सूरत देखकर भी, लेखक की इच्छा हुई, एक थप्पड़ अभी उसके गाल पर जड़ दे कि उसके पैर के नीचे जो नजर पड़ी तो लेखक का ध्यान उस ओर बँट गया और उसका लड़कपन वही जा उलझा।

बुधिया हँसती-मुस्कुराती गाती-झूमती रहती थी। यही था बुधिया का बचपन। अब देखें बुधिया की जवानी-अब बुधिया पैबंदवाली बुधिया नही हैं, अब उसकी चुनर का रंग कभी मलीन नहीं होता। उसकी चोली सिंवाईपट्टी का दर्जी सीता है। वह रोज घास गढ़ने जाती हैं। फिर भी उसके हाथ में ठेले नहीं पड़ते। उसके हाथ में घिस्से भी नहीं पड़ते। रंग वहीं साँवला है। लेकिन उसमे गड्ढे के सड़े पानी का मुर्दनी नही है।

उसमें यमुना नदी का कलकलछलछल है। कितने गोपाल वंशी टेरते। कितने ही नंदलाला रासलीला का स्वप्न देखते। बुधिया जिस तरफ से निकल जाती, जिदंगी तरंग लेने लगती। उसके बालों में चमेली का तेल चपचप करता है। उसकी माँग में टकली जिदंगी तरंग लेने लगती। उसके बालों में चमेली का तेल चपचप करता है। उसकी माँग में टकली-टिकुली चमचम करती है। किसी वृंदावन में एक थे गोपाल, हजार थी गोपियाँ। यहाँ एक है बुधिया और हजार है-गाँव के नौजवान लड़के। इन लड़कों को नाथकर बुधिया को नचाने में मजा आजा था। वह मजा शायद गोपाल-कृष्ण को भी नहीं आया होगा।

वह गाते-गाते भगती-हँसती, इठलाती थी, उसे शर्म नहीं आती थी। उसकी हया बेहयायी पर उतर जाती थी, वह ठहाका लगाती रहती थी। अब देखे बुधिया का बुढ़ापा-उसका बचपना गायब हो चुका था। उसकी जवानी विलीन हो चुकी थी। फटा कपड़ा पहनती। चोली की आवश्यकता ही नही पड़ती थी। बाल बिखरे रहते। चेहरा सूखा-चिचुका-पचका रहता था। गालों में गड़े आँखों के कोटर में समाए रहते। और तो और जो कभी अपनी गोलाई, गठन और उठान से नौजवानों को पागल बनाती थी।

वे दोनो जवानी के फूल बकरी के थन से लटक रहे थे-निर्जीव, निस्पंद, निश्प्राण, बुधिया के दाँत करूणा बरसाते थे। बुधिया के बच्चों ने उसकी देह को बर्बाद कर दिये थे। बुधिया के चैन को ये बच्चे ले उड़े थे। ये बुधिया को तंग करते थे। एक बच्चे को स्तन थमाती, दूसरे, तीसरे चौथे भी सटकर खड़े होते। तभी लेखक ने सही ही कहा है-‘बरसात बीत गई। बाढ़ खत्म हो गई। अब नदी अपनी धारा मे हैं, शांत गति से बहती हैं। न बाढ़ है, न हाहाकार कीचड़ और खर-पात का नाम-निशान नहीं। शांत गंगा। लेखक उस महान मातृत्व की वंदना करता है। इस रेखाचित्र के माध्यम से लेखक स्त्री जाति की रामहानी बड़े ही प्रभावकारी और मार्मिक ढंग से कही है।

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