जयप्रकाश नारायण की जीवनी, मार्क्सवादी, राजनीतिक विचार, आंदोलन एवं सम्पूर्ण क्रांति

जयप्रकाश नारायण एक ऐसे राजनेता थे जिनका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अहम योगदान है। इन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होने ‘सम्पूर्ण क्रांति‘ नामक आन्दोलन चलाया था। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता है।

भारत के समाजवादी विचारकों में जयप्रकाश नारायण का विशिष्ट स्थान है। वे एक समाजवादी, गांधीवादी और सर्वोदयवादी थे, लेकिन इनमें से किसी के साथ वे जीवन भर बंधकर न रह सके। वस्तुतः उनके जीवन और चिन्तन का एक ही लक्ष्य था और वह था, आर्थिक-सामाजिक न्याय और नैतिकता पर आधारित व्यवस्था की स्थापना करना।

जयप्रकाश नारायण की जीवनी

जयप्रकाश नारायण का जन्म 11 अक्टूबर, 1902 को बिहार के सितावदियारा गांव में हुआ था, जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश के अंतर्गत आता है। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पटना में हुई। बचपन से ही नैतिक तत्वों के प्रति उनका आकर्षण रहा और ‘भगवद्गीता’ ने उन्हें प्रेरणा दी। वे जब कॉलेज में थे, तभी 1921 में गांधीजी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े।

सन् 1922 में उनका विवाह प्रभा देवी के साथ हुआ। 1922 में ही वे अध्ययन के लिए अमरीका गये और उन्होंने वहां आठ वर्ष तक अध्ययन किया। वे वर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए। अमरीका में उन्हें अपने अध्ययन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अर्थोपार्जन करना था, अतः बूट पालिश और घरेलू सफाई आदि कार्य करते हुए उन्होंने श्रमिक जीवन के अनुभव प्राप्त किये।

जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी कब बने?

जयप्रकाश नारायण अमरीका में ही मार्क्सवाद के प्रभाव में आये और वहीं उन्होंने एम. एन. राय की रचनाओं का भी अध्ययन किया। भारत आने पर वे महात्मा गांधी के प्रभाव और जवाहरलाल नेहरू के सम्पर्क में आये। समाजवाद की ओर उनका झुकाव युवावस्था से ही था। 1934 ई. में उन्होंने आचार्य नरेन्द्र देव और अन्य साथियों के सहयोग से कांग्रेस के अन्दर ही ‘कांग्रेस समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के वे एक प्रमुख सेनानी थे। 1942 में जब गांधी ने ‘करो या मरो’ का अहिंसक आह्वान किया, उस समय जयप्रकाशजी हजारीबाग जेल में नजरबन्द थे। वे ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भाग लेने के लिए नवम्बर 1942 में हजारीबाग की केन्द्रीय जेल से भाग निकले और उन्होंने भूमिगत रहते हुए लगभग 10 महीने तक स्वाधीनता आन्दोलन का संगठन और संचालन किया, किन्तु 18 सितम्बर, 1943 को लाहौर रेलवे स्टेशन पर उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। अप्रैल 1946 में उन्हें मुक्त कर दिया गया।

1946 में गांधीजी ने उनका नाम कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए प्रस्तावित किया, किन्तु कांग्रेस की कार्यकारिणी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। 1946 में उन्होंने कैबिनेट मिशन योजना’ का विरोध किया और यह विचार रखा कि भारत की संविधान सभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होने चाहिए। उन्होंने अपने लिए संविधान सभा की सदस्यता का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।

जयप्रकाश नारायण का राजनीतिक विचार

देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् उन्होंने सरकार में किसी पद पर रहना स्वीकार नहीं किया। 1948 ई. में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस छोड़कर ‘भारतीय समाजवादी पार्टी’ बनायी।

बाद में इस पार्टी ने ‘प्रजा समाजवादी पार्टी’ का रूप लिया। 1953 में जवाहरलाल नेहरू तथा जयप्रकाश नारायण के बीच इस समस्या पर बातचीत हुई कि राष्ट्रीय पुनर्निर्माण तथा विकास के लिए कांग्रेस तथा प्रजा समाजवादी दल के बीच सहयोग किस प्रकार स्थापित किया जाय, किन्तु वैतूल के सम्मेलन में समाजवादी नेताओं ने आपसी सहयोग के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।

जयप्रकाश नारायण आंदोलन

जयप्रकाश नारायण 1952 से ही विनोबा भावे के नेतृत्व में चलाये जा रहे भूदान और सर्वोदय आन्दोलन की ओर आकर्षित हो रहे थे। दलगत और सत्ता की राजनीति से उन्हें निराशा हो रही थी। अतः 1954 में उन्होंने प्रजा समाजवादी दल की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया और दलगत राजनीति से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया।

अप्रैल 1954 में उन्होंने सर्वोदय आन्दोलन के प्रति ‘जीवन दान’ देने की प्रतिज्ञा की। जयप्रकाश का अब यह विचार हो गया था कि व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन लाने के लिए व्यक्तियों की मनोस्थिति, उनके सोचने-विचारने के ढंग में परिवर्तन लाना आवश्यक है और सर्वोदय आन्दोलन से यह सम्भव है। उन्होंने 1954 में शकोदर में एक आश्रम स्थापित किया और सर्वोदय आन्दोलन तथा ग्रामोत्थान के लिए नये कार्यक्रमों की शुरूआत की।

सर्वोदय अन्दोलन के प्रति जीवन दान की प्रतिज्ञा करते हुए भी उन्होंने अपने आपको दलगत राजनीति तथा सत्ता की राजनीति से ही अलग किया था, सार्वजनिक जीवन के प्रति उनके मनोभाव में कोई अन्तर नहीं आया था। 10 अगस्त, 1970 को उन्हें ‘इन्सानी विरादरी’ का अध्यक्ष बनाया गया और इस संगठन के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय जीवन में साम्प्रदायिक सद्भाव की अभिवृद्धि के लिए प्रयत्न किये।

1970-72 के दो वर्षों में उन्होंने अपना अधिकांश समय और शक्ति बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में नक्सलवादी विद्रोह को समाप्त करने में लगायी। 1972 के प्रारम्भ में जयप्रकाश के आदर्शों से प्रेरित होकर चम्बल घाटी के 400 डाकुओं ने उनके समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया।

जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रांति

1954 से 1973 के बीस वर्षों में जयप्रकाश सर्वोदय आन्दोलन के साथ जुड़े रहे, लेकिन 1970 से ही सम्भवतया उन्हें यह महसूस होने लगा था कि सर्वोदय से भी व्यवस्था में परिवर्तन ला पाना सम्भव नहीं है। उन्हें यह देखकर कष्ट होता था कि भारत के सार्वजनिक जीवन में नैतिकता को भारी आघात पहुंच रहा है और व्यवस्था भी भंग हो रही है। अतः अब वे राजनीतिक व्यवस्था और सम्पूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन लाने की वात सोचने लगे।

1974 में गुजरात और उसके बाद बिहार राज्य में भारी असन्तोष की स्थिति थी। इस स्थिति में उन्होंने मार्च 1974 में बिहार की ‘छात्र संघर्ष समिति’ का नेतृत्व किया। उनका यह संघर्ष लगभग 15 महीने तक चलता रहा। इसी बीच 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय आया, जिसमें इंदिरा गांधी को अपने लोकसभा चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का दोषी ठहराया गया था।

इस स्थिति में भारतीय राजनीति के विपक्षी नेताओं सहित जयप्रकाश की मौजूदगी में दिल्ली में 23 जून, 1975 को बैठक बुलायी गयी। बैठक में श्रीमती गांधी से त्यागपत्र मांगने के लिए विशाल आन्दोलन के कार्यक्रम का मसविदा तैयार किया गया। श्रीमती गांधी ने त्यागपत्र देने के बजाय 26 जून, 1975 को देश में आन्तरिक आपातकाल घोषित कर दी और जयप्रकाश तथा विपक्षी दल के प्रमुख नेताओं को नजरबन्द कर दिया गया। गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाने पर 12 नवम्बर, 1975 को जयप्रकाशजी को जेल से रिहा कर दिया गया।

जनवरी, 1977 ई. को लोकसभा के लिए चुनावों की घोषणा की गयी। अब जयप्रकाशजी आगे आये, उन्होंने जनता पार्टी के गठन, चुनाव प्रचार और जनता पार्टी की सरकार के गठन में सक्रिय भूमिका निभायी। थोड़े समय बाद उन्होंने इस सरकार से भी निराशा अनुभव की और खुले रूप में स्वीकार किया कि “यह सरकार भी जन आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है।

जयप्रकाश का महत्व 1977 के सत्ता परिवर्तन में नहीं, वरन् इस बात में है कि उन्होंने जनता को अपनी शक्ति से परिचित कराया और शासक वर्ग को जन शक्ति से परिचित कराकर सदैव के लिए भविष्य के शासक वर्ग को भी चेतावनी देने का कार्य किया। उन्होंने समस्त व्यवस्था को लोक शक्ति से परिचित कराया था, जनता ने प्रेम और श्रद्धा के साथ उन्हें ‘लोक नायक’ का नाम दिया।

1975 में जेल में बन्दी होने के दौरान ही उनके स्वास्थ्य में गिरावट आ गयी थी और नवम्बर 1975 से ही उनका उपचार चल रहा था, लेकिन जयप्रकाश का स्वास्थ्य चिन्ता का विषय बना रहा और 8 अक्टूबर, 1979 को उनके निधन के दुःखद समाचार से पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया।

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