रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ, रचनाएँ और प्रवृत्तियाँ: रीतिकाल क्या है?

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया है- वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रितिकाल तथा आधुनिक काल। और आज हम रीतिकालीन काव्यों की प्रमुख विशेषताएँ, रचनाएँ और प्रवृत्तियों के बारे में बात करेंगे, जो हिंदी साहित्य के इतिहास के विभाजन के अनुसार संवत् 1700 से 1900 तक का समय रीतिकाल में आता है।

इसके पूर्व भक्ति काव्य लिखा गया था, जिसमें श्रृंगार और भक्ति का ऐसा सम्मिश्रण हो गया था कि एक-दूसरे से पृथक् नहीं हो सकते थे। भक्ति काल के कवियों का श्रृंगार वर्णन उनकी प्रगाढ़ भक्ति का परिचायक था। बहुत-सी वस्तुएँ साधन रूप में अच्छी होती हैं, परंतु जब वे ही साध्य बन जाती हैं, तब उनमें सारहीनता आ जाती है।

हिन्दी साहित्य में रीतिकाल का इतिहास

भक्तिकाल में श्रृंगार की मदिरा ने रसायन का काम किया था, परंतु बाद के समय में वही व्यसन बन गई। राजा और कृष्ण विभिन्न नायक और नायिकाओं के रूप में दिखलाए जाने लगे। भक्तिकाल की रचनाएँ “स्वांतः सुखाय” के उद्देश्य से होती थीं, परंतु बाद में कविता राजदरबार की वस्तु बन गई।

अपनी विद्वता, कलाकौशल से अपने आश्रयदाता को प्रसन्न करना ही कवियों का एकमात्र उद्देश्य रह गया था। एक विशेष रीति पर लोग चल रहे थे, रीति का अर्थ- मार्ग या शैली। कविता में विषय वैविध्य कम था, कविता अर्थ एक बंधी हुई लकीट पर चलना रह गया था। सिंह और सपूत की भाँति लोग लीक छोड़कर चलना पसंद नहीं करते थे।

कवियों की समस्य शक्ति अलंकार, रस, ध्वनि, नायिका, भेद आदि के निरूपण में ही केंद्रित थीं और इसी को कवियों ने कवि-कर्म पालन का प्रमुख मार्ग बना लिया था, जिस पर चलने के कारण ही वह रीतिकाल कहलाया।

रीतिकाल की प्रमुख विशेषताएँ

रीतिकाल की प्रमुख विशेषता रीतिप्रधान रचनाएँ हैं। तत्कालीन कवियों ने भामह, दण्डी, मम्मट, विश्वनाथ आदि काव्याचार्यों के ग्रंथों का गहन अध्ययन करके हिंदी साहित्य को रीति ग्रंथ प्रदान किए।

इन ग्रंथों में रस, अलंकरम ध्वनि आदि का विवेचन, लक्षण और उदाहरण शैली में किया गया है। एक दोहे में रस, अलंकार आदि का लक्षण कहकर, कवित्त या सवैये में उदाहरण प्रस्तुत कर दिया जाता था।

आचार्य केशवदास, मतिराम, देव, चिंतामणि, भूषण, जसवंत सिंह, पद्माकर, बेनी और बिहारी आदि इसी परम्परा के प्रमुख कवि थे। इन्होंने काव्यांगों का पूर्ण विवेचन किया, परंतु शब्द शक्ति पर यथोचित विवेचन प्रस्तुत न कर सके, विषय वैविध्य भी कम रहा।

इस काल में श्रृंगार की मदिरा ने रस की प्रधानता थी। श्रृंगार के आलम्बन और उद्दीपनों के बड़े सरस उदाहरण बनाए गए। ये लोग श्रृंगार को रसराज मानते थे, उनका जीवन विलासितापूर्ण था। कवियों ने स्त्री सौंदर्य का बड़ा सूक्ष्म चित्रण किया। रीतिकालीन साहित्य का वातावरण सौरभय था, उसमें विलासमयी मादकता थी, राजदरबारों की गुलगुली गिलमें और ग़लीचों के विलासमयी जीवन की स्पष्ट छाप थी। उसमें प्रभात के खिले हुए पुष्पों की स्फूर्तिदायिनी सुगंध तो न थी, परंतु शीशी में बंद इत्र का मादक सौरभ था। उस साहित्य में सुलाने की शक्ति अधिक थी, जगाने की कम।

रीतिकालीन काव्यों की प्रवृत्तियाँ

अकबर और शाहजहाँ के शासनकाल में ललित कलाओं की पर्याप्त उन्नति हुई। इससे जनता की अभिरुचि भी परिष्कृत हुई। रीतिकाल के कवियों में कला-प्रेम की प्रधानता थी। मनोहर रूप और दृश्यों के चित्रण में, चमत्कारपूरन कल्पना की उड़ान में, अलंकारप्रियता में उनकी कलाप्रियता के दर्शन होते हैं। बिहारी का एक-एक दोहा उत्कृष्ट काव्य-कला का उदाहरण हो सकता है। पद्माकर, देव, मतिराम, बिहारी ये उस काल के उच्च कोटि के कलाकार थे।

राजदरबारों के आश्रय ने कवियों में कलाप्रियता की वृद्धि की थी। लोग दूर की कौड़ी लाने में सिद्धहस्त थे। वास्तव में काव्य-कला का विकास रीतिकाल में सबसे अधिक हुआ। इस युग की भाषा तो अपनी सुगठित और मार्मिक थी कि अन्य कालों के कवि भी इनकी समानता न कर सके। भाषा के क्षेत्र में पद्माकर अद्वितीय थे।

संगीतात्मकता भी इस युग की विशेषता थी। कवि लोग मधुर और कोमल-कांत पदावली का प्रयोग करते थे। अनुप्रास आदि शब्दालंकारों की सहायता से पद्य संगीतमय बन जाता था। राजदरबारों में श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो जाते।

रीतिकाल की परिस्थितियाँ

रीतिकाल में केवल श्रृंगार प्रधान कवितायें ही नहीं लिखी गईं, अपितु इसके समानांतर अन्य धाराएँ भी अपनी उन्मत्त गति से प्रवाहित होती रहीं, परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रधानता श्रृंगार रस की ही थी। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के साथ-साथ वीर काव्य भी लिखा।

भूषण ने यदि छत्रपति शिवाजी के युद्धों की प्रशंसा की तो सदन ने भरतपुर के जाट राजा सूरजमल की। ये वीर रस प्रधान कविताएँ एक बार तो मृत शव में भी जान डाल देने वाली थीं- चाहे साहित्यिक दृष्टि से, चाहे व्यावसायिक दृष्टि से। यदि देखा जाए तो यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि रीतिकालीन कवि अपने व्यक्तिगत जीवन में भक्त भी थे। श्रृंगारिक कविता के साथ-साथ इनकी भक्ति भावना भी चलती रही। कृष्ण वंदना के साथ दुर्गा जी, शिव, राम आदि देवी देवताओं को भी इन्होंने स्तुति की है।

लगभग दो सौ वर्षों तक रीति प्रधान रचनाएँ होती रहीं। श्रिंगार की प्रधानता होते हुए भी मानव-जीवन की भिन्न-भिन्न वृत्तियों का निरूपण किया गया। शास्त्रीय दृष्टिकोण से उन रचनाओं में भावपक्ष एवं कलापक्ष का अपूर्व समन्वय था। हास्य और व्यंग के साथ नीति के उपदेश, श्रृंगार के साथ भक्ति भावना का प्रवाह, संगीत और काव्य कला के साथ रीति काव्यों की गहनता की त्रिवेणी के दर्शन हमें रीतिकाल में ही होते हैं। रीतिकाल काव्य के चरमोत्कर्ष एवं सर्वांगीण विकास का युग था, इसमें कोईं संदेह नहीं।

रीतिकालीन काव्यों की विशेषताएँ

  • संस्कृत साहित्य के आधार पर रीति ग्रंथों की रचना हुई।
  • प्रमुख रूप में रस, अलंकार, छंद और नायिका भेद का ही विवेचन हुआ।
  • नाट्यशास्त्र तथा शब्द-शक्ति का यथोचित विवेचन नहीं हुआ।
  • विचारों में नवीनता और मौलिकता का अभाव रहा।
  • इस काल के प्रमुख छंद कवित्त और सवैया ही रहे।
  • बिहारी आदि कुछ कवियों ने ही दोहे लिखे।
  • लक्षणों की अपेक्षा उदाहरण अधिक सुंदर लिखे।
  • इस काल का प्रधान रस श्रृंगार रहा।
  • श्रृंगार के साथ वीर रस की भी श्रेष्ठ रचनाएँ हुईं।
  • भावपक्ष की अपेक्षा कलापक्ष पर अधिक ध्यान दिया गया।
  • प्रबंध काव्यों की अपेक्षा मुक्तक काव्यों की अधिक रचना हुई।
  • इस काल की भाषा ब्रज और अवधी थी।
  • मुसलमानी दरबारों के प्रभाव से फ़ारसी शब्दों का भी मिश्रण हुआ।
  • रीतिबद्ध कवियों में से कुछ ने लक्षण ग्रंथ लिखें और कुछ ने केवल लक्ष्य ग्रंथ।
  • रीति मुक्त कवियों ने भक्ति, नीति, प्रेम, वीर, श्रृंगार आदि विविध विषयों पर लेखनी चलाई।

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