जैनेंद्र कुमार द्वारा रचित ‘त्यागपत्र’ उपन्यास एक अनमेल विवाह के दुष्परिणाम की कहानी है। इसमें उपन्यासकार ने उन समस्याओं को उठाया है, जो समाज की कई सच्चाइयों से आपको परिचित करवाती है। आइए जानते हैं ‘त्यागपत्र’ उपन्यास का सारांश, कथानक, पात्र एवं भाषा-शैली।
त्यागपत्र उपन्यास का सारांश
जैनेन्द्र कुमार जी कृत ‘त्यागपत्र’ का प्रकाशन सन् 1937 ई० में हुआ। ‘त्यागपत्र’ अनमेल विवाह के दुष्परिणाम की कहानी हैं। इसकी अभागी नायिका मृणाल के पति को उसके पूर्व प्रेम का पता चल जाता है और वह उसको घर से निकाल देता हैं। उसका भतीजा प्रमोद एक निष्क्रिय स्वभाव वाला व्यक्ति है किंतु पूर्ण सहानुभूति रखते हुए भी उसकी रक्षा नहीं कर पाता।
इसके उपरांत इस निरीह और निरपराध युवती के दयनीय पतन का अंत अपराधियो ओर उपेक्षित व्यक्तियों की एक गंदी बस्ती में घुल-घुलकर उसकी करूण मृत्यु में होता हैं। हिंदू समाज में अरक्षित नारी की आर्थिक परतंत्रता से उत्पन्न घोर विवशता और गंभीर वेदना की यह गाथा पाठक के हृदय को बैचेनी से भर देती है।
जैनेन्द्र जी ने ‘त्यागपत्र’ में जिन समस्याओं को उठाया है, अपनी ओर से उनका कोई समाधान प्रस्तुत नहीं किया हैं। उन्होंने तो लोगों की आँखें खोलने के लिए विसंगतियों का चित्रण भी कर दिया है। इसमें जैनेन्द्रजी ने नारी समस्याओं का जो उद्घाटन किया है, वे मृणाल की वैयक्तिक नहीं हैं, अपितु वे पूरे नारी समाज की हैं।
जैनेन्द्रजी का त्यागपत्र’ एक नारी प्रधान उपन्यास हैं। ‘त्यागपत्र’ समस्या प्रधान उपन्यास नहीं वरन् एक व्यक्ति प्रधान उपन्यास हैं। पर इसकी कहानी का निर्माण हुआ हैं। ‘त्यागपत्र’ में जैनेन्द्रजी का दार्शनिक रूप स्पष्ट दिखाई देता हैं। उनकी दार्शनिकता में गूढ़ता होते हुए भी दुरूहता नहीं हैं। उनका दर्शन समाज सापेक्ष हैं। उसमें साहित्य की सरसता और सहजता के दर्शन होते हैं।
त्यागपत्र उपन्यास की समीक्षा
‘त्यागपत्र’ उपन्यास का शीर्षक या नाम भी उपन्यास शिल्प का विशिष्ट तत्व है। साहित्यकार के लिए भी साहित्यिक विद्या का निर्माण करना सरल कार्य हैं, परंतु उसके रूप, गुण तथा उद्देश्य के अनुसार नामकरण करना अत्यंत कठिन कार्य हैं।
उपन्यासकार जब अपने उपन्यास का नामकरण करता है तो उसके समक्ष विकल्प होते हैं, उपन्यास का शीर्षक जितना श्रेष्ठ होगा, वह उतना ही अधिक प्रभावशाली और कलात्मक होगा। किसी भी साहित्यिक कृति का नामकरण करना साहित्यकार को कुशलता और योग्यता का प्रतीक हैं।
इस उपन्यास का नामकरण जैनेन्द्रजी ने लाक्षणिक आधार पर किया है और वह आधार लगाव की स्थिति में हैं, उपन्यास का शीर्षक ‘त्यागपत्र’ जैनेन्द्रजी ने उद्देश्य प्रधान रखा हैं। उन्होंने इस उपन्यास के शीर्षक में अपनी अपूर्व कल्पना का परिचय दिया हैं। उपन्यास का संपूर्ण कथानक त्यागपत्र के कारणों के चारों ओर घूमता रहता है। इसमें संक्षिप्तता, सरलता, स्पष्टता, मौलिकता, नवीनता, विषयानुकूलता और कथानक का केन्द्र बिंदु आदि श्रेष्ठ औपन्यासिक शीर्षक के सभी गुण उपलब्ध होते हैं।
‘त्यागपत्र’ एक नारी के अतृप्त जीवन की करूण कहानी है जो एक सच्ची घटना के आधार पर लिखी गई हैं। मूलत: इस उपन्यास के कथानक का आधार नारी मनोविज्ञान है। इसमें कलापक्ष गौण हैं। मानसिक ऊहापोह का चित्रण मुख्य रूप से हुआ है।
इस उपन्यास में दर्शन एवं मनोविज्ञान के तत्व स्पष्ट रूप से मुखरित हुए हैं। ‘त्यागपत्र’ दर्शन और मनोविज्ञान के सामंजस्य की भूमि है। दर्शन और मनोविज्ञान के आधार पर इसकी कहानी का निर्माण हुआ हैं। मनोविज्ञान का आज की सभी साहित्य विद्याओं पर व्यापक प्रभाव पड़ रहा हैं और सब मिलाकर निर्विवाद रूप से यह कहा जा सकता है कि मनोविज्ञान के विकास ने औपन्यासिक विकास में सहायता दी हैं और इसके लिए उपन्यास मनोविज्ञान का ऋणी हैं।
कथावस्तु का प्रतिनिधित्व करना उत्तम शीर्षक का विशेष तथा प्रधान गुण हैं। इस उपन्यास का शीर्षक ‘त्यागपत्र’ जैनेन्द्रजी ने उद्देश्य प्रधान रखा है। इसमे उन्हें आशातीत सफलता मिली है। वास्तव में इस उपन्यास का ‘त्यागपत्र’ शीर्षक बड़ा ही सार्थक, उपयुक्त और कलात्मक है। इसमें संक्षिप्तता, आकर्षण, सरलता, स्पष्टता, मौलिकता, नवीनता, विषयानुकलता और कथानक का केन्द्र बिंदु आदि श्रेष्ठ औपन्यासिक शीर्षक के सभी गुण उपलब्ध होते हैं।
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