हिंदी गद्य का विकास, गद्य का अर्थ, गद्य का महत्व

आज प्रत्येक क्षेत्र में ज्ञान की शाखा का विस्तार होता जा रहा है. बीसवीं शताब्दी में ज्ञान का विकास बड़ी द्रुत गाति से हो रहा है. साहित्य के क्षेत्र में भी कहानी, उपन्यास, निबंध, लेख आदि प्रचुर मात्रा में रचे जा रहे हैं. इन विषयों का माध्यम काव्य नहीं हो सकता. इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, विज्ञान आदि का माध्यम ‘गद्य‘ ही होता है. साहित्य की विभिन्न विधाओं में गद्य का स्थान महत्वपूर्ण है. ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति’ उक्ति के अनुसार गद्य को कवियों की कसौटी कहा गया है. तो आज हम आपसे Hindi Gadya ka Vikas के बारे में बात करेंगे.

गद्य का अर्थ क्या होता है? 

गद्य शब्द संस्कृत भाषा की ‘गद्‘ धातु से बना है. जिसका अर्थ होता है ‘स्पष्ट कहना‘. भाषा जिसे हम अपने दैनिक जीवन में लिखित रूप में देखते हैं, जिसका हम नित्य प्रतिदिन जीवन में प्रयोग करते हैं, वही गद्य का रूप है. साहित्य दर्पण के अनुसार वृत्त-बंध -हीन रचना गद्य है. काव्यादर्श के अनुसार ‘आपद: पद्संतानो गद्यजे’ अर्थात पद समुदाय में गण-मात्र आदि के निपत पाद का न होना गद्य है. अंग्रेजी में गद्य को ‘प्रोज’ Prose कहते हैं. अरबी में गद्य को नस्त्र या ‘इबारत’ या ‘नज्म का उल्टा’ कहा गया है. उर्दू में भी अरबी के अनुसार ही गद्य को स्पष्ट किया गया है.

गद्य का महत्त्व

गद्य और पद्य में पहले किसका प्रादुर्भाव हुआ. यह कहना कठिन है. पंडित करुणापति त्रिपाठी का कथन इस सन्दर्भ में ध्यान देने योग्य है. वे कहते हैं, इस भांति नर-समाज ने पहले गद्य साहित्य का आविष्कार किया होगा, परन्तु गद्य-साहित्य से उसकी पूर्ण पुष्टि न हो सकी.

अत: प्रभावोत्पादकता और रमणीयता की अभिवृद्धि करने के विचार से मनुष्य ने अपनी साहित्यिक अभिव्यक्ति में संगीत तत्व का सम्मिश्रण कर उसे ‘कविता’ नाम दिया. संगीत तत्व से अनुप्राणित साहित्य का यह रूप इतना लोकप्रिय हो गया कि इसके सामने गद्यात्मक साहित्य गौण हो गया.

फलत: आज हम संसार के सभी प्राचीन साहित्यों में पद्य की ही प्रचुरता पाते हैं. भामह ने काव्यालंकार में गद्य को “प्रकृत अनाकुल श्रव्य शब्दार्थ पदवृति” कहा है.

कुछ विचारक गद्य और पद्य की भाषा में कोई अंतर नहीं मानते, किन्तु दोनों में अंतर अवश्य है. पद्य साधारणत: छंदोबद्ध रचना होती है. कुछ की दृष्टि में गद्य और पद्य का भेदक तत्व छंद है. नई कविता छंद से मुक्त है, किन्तु वहां भी लय, गति, प्रवाह, स्वराघात,  संगीत, अर्थ की ले, अनुभूति आदि तो विद्यमान रहते ही है.

हिंदी गद्य का विकास 

आधुनिक हिंदी-गद्य का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम दशाब्द में हुआ. उसके पहले हिंदी में गद्य बहुत ही कम था और जो कुछ था भी, वह ब्रजभाषा में. साहित्य की वर्त्तमान भाषा खडी बोली में नहीं. जन्म के उपरांत आधुनिक गद्य के विकास की गाति पचास वर्ष तक अत्यंत मंद रही, लेकिन भारतेंदु हरिशचन्द्र के साहित्य क्षेत्र में अवतीर्ण होने पर उसकी धारा में प्रवाह आ गया.

विषय तथा शैली दोनों की विविधता के विचार से भारतेंदु तथा उनके समकालीन लेखकों ने गद्य विषय की उन्नति की, लेकिन शैली में प्रौढ़ता तथा  भाषा में परिष्कार का काम बीसवीं शताब्दी में पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा उनके समकालीन और परवर्ती लेखकों द्वारा पूरा हुआ. इस तरह से आधुनिक हिंदी गद्य के विकास का इतिहास पिछले सौ वर्षों का इतिहास है. यद्यपि अभी हमारा गद्य-साहित्य पद्य के समान समृद्ध नहीं, फिर भी जिस द्रुत गाति उसकी उन्नति हो रही है, वह एक अत्यंत उज्जवल भविष्य का संकेत है.

हिंदी के राष्ट्रभाषा स्वीकृत होने तथा एक विस्तृत भू-भाग में शिक्षा का माध्यम चुने जाने का कारण गद्य के सब स्वरूपो की रचना तत्परता और वेग से हो रही है. आवश्यकतानुसार गंभीर से गंभीर बौद्धिक तथा वैज्ञानिक विषयों के विवेचन के लिए पारिभाषिक शब्दावली तथा उपयुक्त शैली का निर्माण हो रहा है.

निबंध गद्य का एक प्रमुख अंग है. इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है. ‘कुछ नहीं’ से लेकर विश्व की सब वस्तुओं, भावों और क्रियाओं पर निबंध लिखे जा सकते हैं. विषय और शैली की दृष्टि से उनके अनेक भेद हैं. सामान्यत: शैली की दृष्टि से निबंध के चार वर्ग माने जाते हैं, वर्णनात्मक, विवरणात्मक,  विचारात्मक, भावात्मक.

अंतिम के विचारात्मक और भावात्मक निबंध की महत्ता विशेष रूप से मान्य है. विचारात्मक निबंध मस्तिष्क की वस्तु है, भावात्मक निबंध ह्रदय की. पहले में तर्क का विशेष आश्रय लिया जाता है और दुसरे में रोग एवं कल्पना-तत्व का. शैली तत्व दोनों में ही समान रूप से विद्यमान रहता है. भावात्मक निबंध से मिलता-जुलता होने पर भी गद्य-काव्य का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है. दोनों में भावों की प्रधानता होती है.

गद्य का विकास का वर्णन

हिंदी गद्य का एक अंग ‘जीवनी’ है. घटनाओं के ऐतिहासिक ब्यौरे से पूर्ण जीवनियाँ तो बहुत लिखी गयी है, लेकिन व्यक्तित्त्व का विश्लेषण और मूल्यांकन करने वाए जीवन चरित्र बहुत कम है. आत्मकथा लिखने का चलन कुछ ही वर्षों से चला है. डॉ. राजेंद्र प्रसाद, महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, जैसे विद्वानों के आत्म चरित्र बड़े सुन्दर नीके हैं. जिससे आशा होती है कि भविष्य में हमारे साहित्यकार इस ओर अग्रसर होंगे.

आत्मकथा के समान ही हिंदी में संस्मरण लिखने की परम्परा का जन्म बीसवीं शताब्दी में ही हुआ है. पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी, श्री रामवृक्ष बेनीपुरी, पंडित श्रीराम शर्मा आदि संस्मरणों के प्रमुख लेखक है.

‘यात्रा वर्णन’ भी गद्य का एक महत्वपूर्ण अंग है. हिंदी के गद्य साहित्य में यात्रा वर्णन कम है. ‘मेरी यूरोप यात्रा’, ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ जैसी कुछ गिनी-चुनी पुस्तकें ही यात्रा वर्णन की है.

इसे भी पढ़ें: मानक भाषा किसे कहते हैं?

Leave a Comment