आप सभी ने नाटक ज़रूर देखा होगा। अभिनय के माध्यम से समाज एवं व्यक्ति के चरित्रों का प्रदर्शन ही ‘नाटक’ कहलाता है। यह दृश्य काव्य के अंतर्गत आता है जो रंगमंच का विषय है। इसका उद्देश्य शिक्षण और मनोरंजन के साथ-साथ मानवीय संवेदना, समस्या एवं समाज के यथार्थ का चित्रण करना है। और आज हम इसी के बारे में बात करने वाले हैं कि नाटक किसे कहते हैं? और नाटक के प्रमुख तत्त्व कौन-कौन से हैं?
हिंदी में नाटक लिखने की परम्परा भारतेंदु युग से मानी गई है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का ‘अँधेर नगरी’, प्रसाद का ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त‘, ‘ध्रुवस्वामिनी’ आदि की लोकप्रियता उल्लेखनीय है। आज के समय में नाटक रंगमंच तक ही सीमित नहीं है। यह रंगमंच से फ़िल्मों, नुक्कड़ नाटकों, रेडियो-नाटकों और दूरदर्शन पर धारावाहिकों जे रूप में व्याप्त हो गया है।
नाटक किसे कहते हैं?
नाटक काव्यकला का सर्वश्रेष्ठ अंग है। अभिनय के माध्यम से समाज एवं व्यक्ति के चरित्रों का प्रदर्शन ही नाटक है। इसमें कथा-तत्त्व की प्रधानता होती है। परम्परागत रूप से नाटक कम-से-कम पाँच अंकों का होना चाहिए, जिसमें आरम्भ, विकास, चरम एवं अंत दिखाया जाता है।
भारतीय परंपरा में नाटक को ‘पंचमवेद’ कहा गया है। नाटक की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित हैं। किंतु विद्वानों ने नाटक के मूल में अनुकरण की प्रवृत्ति को मुख्य माना है। नाटक के मूल में मनुष्य की चार प्रवृत्तियाँ काम करती रहती हैं- अनुकरण, आत्म-प्रसार, जाति की रक्षा का भाव और आत्माभिव्यक्ति।
नाटक के प्रमुख तत्त्व कौन-से हैं?
नाटक के मुख्यतः सात तत्त्व माने गए हैं, जो निम्नलिखित हैं।
- कथावस्तु
- पात्र और चरित्र-चित्रण
- कथोपकथन या संवाद
- देशकाल तथा वातावरण चित्रण एवं संकलनत्रय
- उद्देश्य
- शैली
- अभिनय तथा रंगमंच।
कथावस्तु किसे कहते हैं?
नाटक की कहानी को कथावस्तु कहते हैं। किंतु नाटककार उपन्यासकार की तरह विस्तृत कथावस्तु के चयन के लिए स्वतंत्र नहीं होता। उसे सीमित अवधि (तीन-चार घंटे) में अभिनीत किए जाने योग्य कथा-सामग्री का उपयोग करना पड़ता है। अतः वह विस्तृत कथावस्तु से अपने मतलब के तथ्य को चुन लेता है।
नाटक की कथावस्तु दो प्रकार की होती है; आधिकारिक एवं प्रासंगिक।
नाटक की मुख्य या प्रधान कथा को आधिकारिक एवं गौण या सहायक कथावस्तु को प्रासंगिक कथावस्तु कहते हैं। प्रासंगिक कथावस्तु के भी दो भेद हैं- (i) पताका और (ii) प्रकरी। मुख्य कथा के साथ अंत तक चलनेवाली प्रासंगिक कथा ‘प्रकरी’ कहलाती है जबकि बीच में ही समाप्त हो जाने वाली प्रासंगिक कथा ‘पताका’ कहलाती है।
कार्य एवं व्यापार की दृष्टि से कथावस्तु की पाँच अवस्थाएँ होती हैं अथवा इन्हीं अवस्थाओं में कथावस्तु को संघटित किया जाता है। ये अवस्थाएँ प्रारम्भ, विकास, चरम-सिम, निगति (उतार) और समाप्ति कहलाती है। संस्कृत के आचार्यों ने इन अवस्थाओं को प्रारम्भ, प्रयत्न, प्रपत्याशा, नियताप्ति और फलागम कहा है। इन अवस्थाओं की सहायता ‘पाँच अर्थ-प्रकृतियाँ’ और ‘पाँच संधियाँ’ करती हैं।
नाटक के कथानक को जो चमत्कारपूर्ण अंश अभीष्ट फल की ओर ले जाता है, उसे अर्थ-प्रकृति कहते हैं। ये पाँच हैं- बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य। अवस्थाओं और अर्थप्रकृतियों में मेल कराने का कार्य संधियों द्वारा सम्पन्न होता है। ये भी पाँच हैं- मुख, प्रतिमुख, गर्भ, अवमर्श या विमर्श और निर्वहण (उपसंहार)।
पात्र और चरित्र-चित्रण क्या होता है?
नाटक में घटनाओं के आधार पात्र होते हैं। नाटक के प्रमुख पात्र को नायक कहते हैं। उसे नाटक का ‘नेता’ भी कहा जाता है। वह कथा को फल की ओर ले जाता है। नायक ही नाटक के फल का उपभोक्ता होता है। नायक की पत्नी या प्रेमिका ‘नायिका’ कहलाती है।
संस्कृत में नाट्यशास्त्र में नायक और नायिकाओं के भेदोपभेदों और विशेष लक्षणों का विस्तृत विवेचन किया गया है। नायक को सर्वगुण सम्पन्न होना चाहिए। नायक चार प्रकार के होते हैं- धीरोदात्त, धीर ललित, धीर प्रशांत और धीरोद्धत। नायक के विरोधी या प्रतिपक्षी को ‘प्रतिनायक’ या ‘खलनायक’ कहा जाता है।
नायक के सहायक पीठमर्द कहलाते हैं। नायिकाएँ भी चार प्रकार की मानी गयी हैं- दिव्या, नृपतिनीर, कुल स्त्री तथा गणिका। आधुनिक विवेचन के अनुसार नायिकाएँ सवकीय, परकीया या सामान्य मानी गयी हैं। इनकी विरोधिनी खलनयिका कहलाती हैं।
चरित्र-चित्रण: नाटकों में चरित्र-चित्रण उपन्यास की तारह ही होता है। पात्रों की मानसिक और भावात्मक परिस्थितियों के चित्रण द्वारा उनकी आंतरिक एवं बाह्य वृत्तियों का प्रकाशन किया जाता है। नाटककार तीन प्रकार से चरित्र-चित्रण करता है- कथोपकथन द्वारा, स्वगत कथन द्वारा एवं कार्य-कलाप या कार्य-व्यापार द्वारा।
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कथोपकथन किसे कहते हैं?
नाटक की भित्ति संवाद पर ही टिकी हुई होती है। कथाक्रम के विकास और चरित्र-चित्रण के लिए कथोपकथन की अनिवार्य उपयोगिता मानी जाती है। कथोपकथन (संवाद) की सफलता पर ही नाटक की सफलता निर्भर करती है। उसमें नाटकीय वस्तु का विकास इसी के द्वारा सम्पन्न होता है।
नाटकों में नाटकीय लाघव लाने के लिए कथोपकथन को छोटा और सार्थक होना चाहिए। पात्रानुकूलता, वातावरणअनुकूलता और प्रसंगानुकूलता नाटकीय कथोपकथन के अनिवार्य गुण हैं। संस्कृत के लक्षण ग्रंथों में विस्तारपूर्वक कथोपकथनों के प्रकारों के विस्तृत विवेचन उपलब्ध हैं।
देशकाल तथा वातावरण चित्रण क्या है?
उपन्यास की भाँति नाटक में भी देशकाल तथा वातावरण का चित्रण उपयुक्त, पूर्ण और हृदयग्राही होना चाहिए। इससे पात्रों के व्यक्तित्व में स्पष्टता और वास्तविकता आ जाती है। इसलिए प्रत्येक युग, प्रत्येक देश तथा वातावरण का चित्रण उसकी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाज, रहन-सहन और वेशभूषा के अनुरूप होना चाहिए।
परंतु इस चित्रण में रंगमंच की सुविधाओं और सीमित स्थान का ध्यान रखा जाना चाहिए। प्राचीन यूनानी आचार्यों ने नाटक में देश तथा काल की समस्या पर विचार कर ‘संकलनत्रय’ का विधान किया था। संकलनत्रय में स्थल, कार्य तथा काल की एकता पर विशेष ध्यान देना पड़ता है।
नाटक का उद्देश्य
नाटक के उद्देश्य के विषय में भारतीय और पाश्चात्य दृष्टिकोणों में पर्याप्त अंतर है। भारतीय आचार्यों ने नाटक में रस को प्रमुखता दी है। पाश्चात्य नाटकों में व्यक्त या अव्यक्त रूप में कोई न कोई उद्देश्य अवश्य रहता है। किसी प्रकार का जीवन-मीमांसा या विचार-सामग्री के रूप में आता है। आंतरिक और बाह्य संघर्ष द्वारा ही दर्श या पाठक उस उद्देश्य को समझने में सफल होते हैं।
शैली: नाटक का प्रमुख तत्त्व
नाटक की शैली में भी साहित्य के अंगों के लिए अपेक्षित शैली का ध्यान रखना पड़ता है। कथोपकथन की शैली ही नाटक की प्रधान शैली है।
अभिनय तथा रंगमंच क्या होता है?
भारतीय आचार्यों के अनुसार ‘अभिनय’ भी नाटक का प्रमुख अंग है। अभिनय के चार प्रकार माने गए हैं- आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्त्विक। इस प्रकार नाटक की सार्थकता उसके अभिनीत होने में है। कुछ नाटक केवल पढ़ने के लिए लिखे जाते हैं परंतु अधिकांश नाटक अभिनय के लिए ही होते हैं। अतः रंगमंच भी नाटक का एक अनिवार्य अंग है।