एक समय ऐसा भी आता है जब आकाश सहसा काले बादलों से आच्छन्न हो जाता है, चारों ओर अंधकार-ही-अंधकार दिखाई पड़ने लगता है, न कोई राह सूझती है, न कहीं कोई ठिकाना दिखता और निराशा की ऐसी घड़ी में सहसा एक प्रकाश-किरण हमें राह दिखाती है। लोकनायक पंडित जवाहरलाल नेहरू के निधन की संकटापन्न घड़ी में बिजली की भाँति कौंधकर जिन्होंने हमारा पथ-प्रदर्शन किया था, वे थे महानेता लालबहादुर शास्त्री।
लालबहादुर शास्त्री कौन थे?
भारत के पूर्व भूत प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर, 1904 ई० को बनारस के निकट मुगलसराय नामक स्थान में एक अतिसाधारण कायस्थ-परिवार में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद जी एक साधारण शिक्षक थे।
डेढ़ वर्ष को अबोध आयु में ही उनके ऊपर से पिता की स्नेहवत्सल छाया हट गई। इसके पश्चात तो उनकी धर्मपरायण माताजी श्रीमती रामदुलारी देवी का स्नेहसलिल ही नवजात बिरवे को सींचता रहा। इसके बाद संकट के कितने झंझावात उस बिरवे की जड़ उखाड़ने के लिए उठते रहें, किन्तु अदम्य जीवनशक्तिवाला यह लघुपादप आकाश की और कलगी उठाए बढ़ता रहा, मचलता-मुसकराता ही रहा।
लालबहादुर शास्त्री का जीवन परिचय
लालबहादुर बचपन में अपने गाँव से बनारस पढ़ने के लिए जाते थें। उतराई के पैसे ना रहने के कारण सबल मन, पर दुर्बल तनवाले लालबहादुर गंगा तैर कर जाते थें। लगता है माँ गंगा ने लालबहादुर को बचपन में ही आत्मबल एवं आत्मविश्वास से इस प्रकार परिपूरित कर दिया था कि वे जीवन भर कभी साहसशून्य नहीं हुए। एक बार 1921 ई० में महात्मा गाँधी बनारस आए। वे असहयोग-यज्ञ का श्री गणेश कर रहे थे।
उन्हे ऊर्जा से उबलते नवयुवकों की आहुतियों की आवश्यकता थी। लालबहादुर ने सोल्लास उनकी सूत्रवा पर प्रथम स्वाहा के निमित्त चढ़ जाने के लिए अपने को समर्पित किय। उस समय लालबहादुर जी की आयु केवल सत्रह साल की थी और वे वाराणसी के हरिचन्द्र विद्यालय के छात्र थे। ढाई वर्ष तक बंदीगृह की यातना झेलकर वे पुनः अध्ययन का दीप जलाने के लिए काशी विद्यापीठ चले आए।
वहाँ भारतविख्यात दार्शनिक भारतरत्न डॉ० भगवानदास, कुंदन की तरह दमकनेवाले आचार्य जे० बी० कृपलानी, वैदिक साहित्य के प्रकांड पड़ित डॉ० संपूर्णानन्द तथा स्वनामधन्य चिंतक श्री प्रकाश के सान्निध्य में रहकर चार वर्षों तक उन्होंने जो ज्ञानज्योति जलाई, उससे आजीवन उनका पथ प्रकाशित होता रहा।
लालबहादुर शास्त्री के राजनितिक जीवन
दर्शन और संस्कृत-साहित्य के अध्ययन के पश्चात शास्त्रीजी सक्रिय राजनीति में कूद पड़े। उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र इलाहाबाद चुना। वे इलाहाबाद-इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के सक्रिय सदस्य रहे। वहाँ की काँग्रेस कमिटी के महासचिव के दायित्वपूर्ण कार्य को वे बड़ी तत्परतापूर्वक करते रहें। 1937 ई० में वे उत्तरप्रदेश की विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। 1941 ई० में वे दूसरी बार जेल गए। उनके जीवन के नौ महत्वपूर्ण वर्ष कारावास की चहारदीवारी में बीते।
इस बीच उनके सामने अनेक बार विपत्तियाँ सुरसा की तरह मुहँ फैलाती आई, किन्तु वे पवनपुत्र हनुमान की तरह विपत्तियों का दलन करते हुए आगे बढ़ते गए। उनकी साधना और तपस्या से उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री पं० गोविंदवल्लभ पंत बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने 1947 ई० में उन्हें अपने मंत्रिमंडल में गृहमंत्री बनाया।
अब लालबहादुर के जीवन का लाल सितारा चमका। पं० जवाहरलाल नेहरू का ध्यान भी इस राष्ट्रभक्त एवं साधना के भगीरथ की ओर गया। उन्होंने शास्त्रीजी को दिल्ली बुलाकर काँग्रेस-संगठन का कार्यभार सौंपा। शास्त्री जी बड़ी कुशलता से संगठन कार्य करते रहें। जब 1952 ई० मे पं० नेहरू के नेतृत्व में पहली बार भारतीय गणतंत्र का नवनिर्वाचित मंत्रिमंडल बना, पंडित जी ने शास्त्रीजी को रेल तथा परिवहन मंत्री बनाया।
Lal Bahadur Shastri Biography in Hindi
शास्त्री जी जानते थें कि जिस गाड़ी में सभी श्रेणियों के डिब्बे रहते हैं, उनमें तृतीय श्रेणी के यात्रियों को कितना कष्ट होता है। सामान्य जनता की सुविधा के लिए उन्होंने ‘जनता गाड़ी’ चलाई। इससे उन्होंने सामान्य लोगों का यात्राकष्ट ही नहीं कम किया, वरना ऊँच-नीच, गरीब-अमीर के भेदभाव को भी दूर किया। किन्तु इस बीच अरियालुर में भयानक रेल-दुर्घटना हुई। सैकड़ों आदमी मरे। यद्यपि इस दुर्घटना से शास्त्रीजी का कोई संबंध नहीं था। तथापि उस विभाग में बने रहना उन्होंने उचित नहीं समझा, जिस विभाग के कर्मचारी असावधान हो।
1975 ई० में इलाहाबाद से वे लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए और फिर संचार तथा परिवहन मंत्री बनाए गए। 1961 ई० में उन्हें स्वराष्ट्र-मंत्री का कार्य सौंपा गया। कामराज योजना में 1963 ई० उन्होंने स्वराष्ट्र-मंत्री से त्यागपत्र दे दिया, किन्तु पंडित नेहरू के पाँव उनकी लकुटिया से बिना डगमगाने लगा। जब वे 26 जनवरी, 1964 नेहरू-मंत्रिमंडल में निर्विभागीय मंत्री बनाए गए, तब कामराज-योजना से प्रभावित एक व्यक्ति ने मजाक में कहा था- ” अरे वाह, वह तो कैरम का स्ट्राइक निकला ! बोर्ड से गिरा था हमलोगों के साथ, मगर अकेला बोर्ड पर फिर वापस आ गया। ”
नेहरू जी के समय जब-जब संकट का झंझावात उठता रहा, तब-तब शास्त्री जी कुशल नाविक की तरह उनकी डगमग नैया को किनारे लगाते रहें। असम के भाषा-विवाद, भारत -नेपाल तथा कश्मीर के हजरतबल-दरगाह से पवित्र बाल की चोरी के अवसर पर उन्होंने अपनी जिस राजनीतिक सूझ एवं प्रत्युत्पतत्रांमतित्व का परिचय दिया, वह किसी से छिपा नहीं है।
लालबहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के नेता
27 मई 1964 को दो बजे दिन में हमारे बीच से पं० नेहरू उठ गए, तो ‘नेहरू के बाद कौन’ की विकट समस्या तत्काल समाधान माँगने लगी। किन्तु यह बेचैनी बहुत देर नहीं रही और काँग्रेस-दल ने सर्वसम्मति से 9 जून, 1964 को शास्त्री जी को प्रधानमंत्री के उच्च सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। उन्होंने ज्योंही शासनभार सँभाला, त्योंही उनका ध्यान भारतवर्ष के चतुर्दिक विकास की ओर उन्मुख हुआ, किन्तु सितंबर, 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया।
पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक राष्ट्रपति अयूब खाँ को अपने पैटन टैंकों तथा अमेरिका द्वारा प्रशिक्षित सेनानियों पर बड़ा नाज था। जब शास्त्रीजी अपने रणबाँकुरों को ‘का चुप साधि रहो बलवाना’ कहकर उत्साह दिलाया, तो फिर क्या था, अमरीकी टैंक जापानी खिलौनों की तरह टूटने लगे।
शास्त्री जी ने उस समय ‘जय जवान, जय किसान’ का जो नारा दिया था, वह भारतीय प्रगति का सनातन नारा बन गया है। 1962 ई० में भारत ने चीन-युद्ध में जो पराजय झेली थी- उस कारण जब वे प्रधानमंत्री हुए थे, तब भारत का सर झुका हुआ था। उन्हें जो सेना मिली हुई थी, वह भी ग्लानि के भार से दबी जा रही थी। उसके अधिकांश फूल नेफा-चुशूल में न्योछावर हो चुके थें। उन्होंने उसी सेना में फिर से संजीवनी फूंकी और उसे चेतनावान किया।
बहुत दिनों के बाद भारत को ऐसा महसूस हुआ कि हम भी वीर है, हम भी मरने-मारने में माहिर हो सकते हैं, हम भी देश के लिए कुर्बानियाँ दे सकते हैं और देश भीतर यदि कोई शत्रु घुस आए, तो हम भी उसे धूल चटा सकते हैं। हम इतने सीधे नहीं कि जो चाहे चमका दे जाए, न तो इतने विनम्र ही कि जो चाहे कमानी की तरह झुका दे। शास्त्री जी चाहते थें, भारत और पाकिस्तान दोनों पड़ोसी देश शांति से रहें। इसी शांति की खोज में वे अपने देश से दूर ताशकंद गए और वहीं 1966 ई० की 11 जनवरी की मध्यरात्रि में सदा के लिए हमें छोड़ चले गए।
लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु कैसे हुई?
अमेरिका और रूस के दबाव पर शास्त्री जी शान्ति समझौते पर बातचीत करने के विषय मे पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ से रूस की राजधानी ताशकंद में मिले. ऐसा कहा जाता है कि समझौते के दौरान शास्त्री जी पर दबाव डालकर हस्ताक्षर करवाए गए। उसके बाद उसी समझौते की रात को ही 11 जनवरी 1966 ई० को उनकी रहस्यपूर्ण तरीके से मृत्यु हो गई, उसके बाद लोगों को बताया गया की शास्त्री जी को दिल का दौरा पड़ा था। जिसके बाद उनका पोस्टमार्टम नहीं किया गया।
हालांकि इसके बाद कई सारे राज सामने आए जो इस तरफ इशारा कर रहे थें कि उनकी मौत संदिग्ध परिस्थितियों में हुई थी, और उनकी पत्नी ललिता का कहना है कि शास्त्री जी का मृत शरीर नीला पड़ चुका था। उनके मौत के बाद कई दिनों तक छान-बिन हुई, हालांकि PMO ने कहा की इस तरह के खुलासे से विदेशी संबंध खराब हो सकते हैं। इसलिए इसे खारिज कर दिया गया।
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