महँगाई की समस्या पर निबंध (1000 शब्दों में) Inflation in Hindi मुद्रास्फीति

बढ़ती महँगाई के कारण लगभग सभी लोग परेशान हैं। कुछ वर्ष पहले जो चीजें ख़रीदने में सहज होती थीं, अब वे केवल पैसेवाले-अमीर लोग ही ख़रीद पाते हैं। और बेचारे गरीब लोग तो दो वक्त खाने के लिए भी पैसे जुटा नहीं पाते हैं क्योंकि सभी वस्तुओं की क़ीमतें आसमान छू रही हैं। यह लेख महँगाई की समस्या पर ही आधारित है जिसे आप अपने विद्यालय या कॉलेज में निबंध के तौर पर भी लिख सकते हैं।

महँगाई की समस्या पर निबंध

महँगाई की समस्या से भारतीय जनता त्रस्त हो चुकी है। इसका मुख्य कारण है भारत की आर्थिक स्थिति की चरमराहट। आज आर्थिक दिवालियापन पूरे समाज का खून चूस रही है। हम रोज़-रोज़ महँगाई का इतिहास रचते हैं। बेचारी आम जनता, जिसकी कमर लगभग टूट चुकी होती है, इस अभिशाप को झेलने के लिए बाध्य है।

यह कोई नई चीज़ नहीं है, बल्कि महँगाई तो जैसे अब एक ऐतिहासिक चीज़ बन गई है जो आज तक चली आ रही है। जब से भारत स्वतंत्र हुआ है तब से हम इस मार से मरते आए हैं। द्वितीय पंचवर्षीय योजना के समय मूल्यों में 35% की वृद्धि हुई और तीसरी योजना के समय 32% की।

उसके पश्चात् केवल एक ही साल में 1967-68 में 11% मूल्य की वृद्धि हो गयी। 1971 में जब भारत-पाकिस्तान युद्ध हुआ तो यह समस्या और गंभीर हो गयी। 1974 में महँगाई की कोई सीमा नहीं रही। अब तो यह कहना भी कठिन हो गया है कि किस वर्ष मूल्य का सूचकांक क्या था और क्या रहेगा?

देश के विकास के लिए अनेक तरह के प्रयास किए गए हैं, जिसके फलस्वरूप कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आए हैं। लोगों के जीवन-स्तर में परिवर्त्तन भी आया है, लेकिन यह प्रतिशत बहुत कम है। हमारी जरुरत अत्यधिक बढ़ गयी है।

जिसके पास दो जून की रोटी नहीं है, वह भौतिक सुख-साधनों का जमकर प्रयोग नहीं करता है। जैसे टी॰वी॰, रेडियो, सिनेमा, शराब, सिगरेट, सुर्ती और विभिन्न तरह के सौंदर्य प्रसाधन। इससे माँग और पूर्त्ति में खास अंतर आ जाता है जिसके कारण मूल्यवृद्धि होना स्वाभाविक हो जाता है। इस स्वाभाविकता के शिकार निम्न मध्यमवर्गीय और निम्न वर्ग के लोग अधिक हुए हैं।

बढ़ती महँगाई पर लेख

माँग और पूर्त्ति के बीच असंतुलन होने के कारण जनसंख्या में असामान्य वृद्धि हुई है। प्रायः यहाँ तीन सेकेंड में चार बच्चे जन्म लेते हैं, जिनके लिए जीवन-यापन की वस्तुएँ आवश्यक होती हैं। मूल्यवृद्धि के लिए राज्य, समाज और व्यक्ति सभी समान रूप से दोषी हैं। तब सवाल यह उपस्थित होता है कि सरकार उस बुराई को क्यों नहीं रोकती है।

सरकार इस दिशा में कई तरह से सार्थक प्रयास कर रही है, लेकिन वह लालफ़ीताशाही और भ्रष्टाचार के कारण उसके सारे प्रयास निरर्थक साबित होने के भय से जैसा चलता है, वैसा चलने देती है। जिसका परिणाम होता है कि कर्मचारी और सरकार के बीच एक सेतु तैयार हो जाता है और गरीब जनता का जमकर शोषण होता है। जिसे नसीब का खेल मानकर जनता चुपचाप यह बोझ सह लेती है। सरकारी-तंत्र का एक भी ऐसा दफ़्तर नहीं है जहाँ लक्ष्मी का खेल नहीं होता है अर्थात् चारों तरफ ब्रह्म-राक्षसों का ढेर लग चुका है।

आज सरकार ने जो आर्थिक परिवर्त्तन लागू किया है, उनसे कोटा-परमिट भी एक पद्धति है- जिसमें एक नए वर्ग का उदय हुआ है, वह वर्ग है दलाली का। यह वर्ग उनलोगों का है जो शासक राजनीतिक दल के सदस्य हैं और कोटा-परमिट प्राप्त करके बेचते हैं। कोटा-परमिट के कारण जमाखोरी की प्रवृत्ति को अधिक बाल मिला है। विक्रेता और उपभोक्ता दोनों ही अधिक से अधिक माल अपने पास रखना चाहते हैं। इस कारण है फिर न मिलने का भय।

विक्रेता और उपभोक्ता के बीच संतुलन रखने हेती असंख्य अफ़सरान बैठाए गए हैं। लेकिन लक्ष्मी का नृत्य उन्हें भी मोहित कर लेता है, और भ्रष्टाचार का व्यापार कम होने के बजाय दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती ही जाती है। इस भ्रष्ट प्रशासन ने देश के आर्थिक ढाँचे को चरमरा दिया है उसपर उच्चतम शासन करने में असमर्थ हैं।

कारण स्पष्ट है ये दुकानदार से घुस लेते हैं, उद्योगपतियों से चुनावों के लिए पार्टी के नाम पर चंदा लेते हैं। तब कौन किसको कहे और किससे इस प्रकार भ्रष्टाचार का यह विषम चक्र चलता ही रहता है। महँगाई बढ़ने पर मूल्य के सूचकांक ऊपर उठने पर प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक वर्ग के कर्मचारी वेतनवृद्धि के लिए माँग, आंदोलन, हड़ताल आदि करते हैं। मज़दूर वर्ग भी अपनी मज़दूरी बढ़ते लेते हैं। बढ़े हुए वेतनों के भुगतान के लिए सरकार नयी मुद्रा जारी करती है और इस प्रकार मुद्रास्फीति होती है, जो महँगाई का एक अन्य कारण है।

मूल्यवृद्धि के दो अन्य महत्त्वपूर्ण कारण हैं- राजनीतिक और सामाजिक। हमारे श्रमिक छोटा-सा भी बहाना मिल जाने पर तालाबंदी या हड़ताल कर देते हैं। उन्हें तत्काल राजनीतिक समर्थन प्राप्त हो जाता है। फलतः काम न भी करने पर पूरा वेतन देना पड़ता है। उत्पादन गिरता है, लागत में वृद्धि होती है और क़ीमत अपने आप बढ़ जाट है।

सामाजिक संस्कृति के कारण भी मूल्यवृद्धि हो जाती है- जिसमें हमारा पर्व-त्योहार, शादी-विवाह, श्राद्ध-कर्म प्रवृत्ति हैं। इन अवसरों पर उपभोग सामग्री की माँग बढ़ जाती है और एक अवधि विशेष के लिए मूल्यवृद्धि हो जाती है। फिर वह अपनी नियत सूचकांक पर कभी नहीं आती।

महँगाई की समस्या का समाधान तो हो सकता है, लेकिन उसके लिए जनता और सरकार दोनों को प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। सरकार को क़ीमतों पर नियंत्रण करना पड़ेगा और दण्ड-व्यवस्था काफ़ी कठोर करना पड़ेगा, जिससे यह होगा कि पूँजीपति या व्यापारी वर्ग वस्तुओं का मनचाहा मूल्य न बढ़ने पाएँ। प्रत्येक वस्तु का दाम यदि सरकार निर्धारित कर दे तो उपभोक्ता को भी राहत होगी और बाज़ार भी स्थिर रहेगा। इससे व्यापारी वर्ग का मनोबल गिरेगा और उनमें एक डर भी बना रहेगा।

माँग और पूर्त्ति दोनों में संतुलन बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन की शक्ति को बढ़ाया जाए। जबतक माँग और पूर्त्ति में अंतर रहेगा तबतक मूल्यवृद्धि पर कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं है।

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