जैनेन्द्र कुमार का हिंदी साहित्य में काफी विशेष स्थान है फिर भी ऐसा लगता है कि समय के साथ उनके योगदान के महत्व को लोगों ने कुछ भुला-सा दिया है। वे हिंदी साहित्य के एक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कथाकार उपन्यासकार, तथा निबंधकार हैं। आइए जानते हैं जैनेंद्र कुमार का जीवन परिचय, कृतियाँ, कहानी, उपन्यास और साहित्यिक परिचय।
जैनेंद्र कुमार का जीवन परिचय
जैनेन्द्र कुमार का जन्म सन् 1904 में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ के कौडियागंज नामक गाँव में हुआ था। जन्म के दो वर्ष के बाद ही इनके पिता प्यारेलाल का देहांत हो गया। इनकी माता रामादेवी तथा मामा भगवानदीन ने इनका पालन-पोषण किया। इनकी प्रांरभिक शिखा हस्तिानापुर के जैन गुरूकुल में हुई। मैट्रिक की परीक्षा इन्होंने पंजाब से पास की।
जैनेन्द्र की उच्च शिक्षा काशी विश्वविद्यालय में हुई। सन् 1921 में पढ़ाई छोड़कर ये असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। दो वर्ष तक इन्होंने अपनी माता की सहायता से व्यापार किया जिसमें इन्हें सफलता भी मिली पर इनकी रूचि लेखन की ओर ही अधिक था। नागपुर में इन्होंने राजनैतिक पत्रों में संवाददाता के रूप में भी कार्य किया। उसी वर्ष तीन माह के लिए इन्हें गिरफ्तार किया गया। दिल्ली वापस लौटकर इन्होंने व्यापार से स्वयं को अलग कर लिया।
“फाँसी” इनका पहला कहानी संग्रह था, जिसने इनकों प्रसिद्ध कहानीकार बना दिया। सन् 1921 मे इनका पहला उपन्यास “परख” प्रकाशित हुआ, जिस पर इन्हें बाद में साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला।
मुंशी प्रेमचंद के बाद हिंदी कहानी को नवीन आयाम देनेवालों में जैनेन्द्र का नाम प्रमुख हैं। उन्होंने प्रेमचंद के निकट संपर्क में हरने पर भी उनका अनुशरण नही किया, वरन अपने लिए नई दिशा की खोज की। जैनेन्द्र प्रेमचंद से इस अर्थ में विशिष्ट है कि वे अपनी कहानी से भागते हैं। घटनाओं को प्रायः छोडते जाते हैं या उनकी जगह संकेत से काम लेना पसंद करते हैं।
जैनेन्द्र जी ने व्यक्ति मन की शंकाओं प्रश्नों तथा गुत्थियों का अंकन किया है। वे मात्र पश्चिम की नकल पर मनोवैज्ञानिक साहित्य लेखन नहीं किया बल्कि अपनी प्रतिभा के द्वारा नई खोज की, जिससे हिंदी साहित्य को नई दिशा मिली। इस अनूठे साहित्यकार का निधन सन् 1988 में हुआ।
जैनेंद्र कुमार का साहित्यिक परिचय
जैनेन्द्र कुमार का हिंदी साहित्य में विशेष स्थान है फिर भी ऐसा लगता है कि समय के साथ उनके योगदान के महत्व को लोगों ने कुछ भुला सा दिया है। जैनेन्द्र पहले ऐसे लेखक हैं जिन्होंने हिंदी गद्य को मनोवानिक गहरायों से जोड़ा।
जिस समय प्रेमचंद सामाजिक पृष्ठभूमि के उपन्यास और कहानियाँ लिख कर जनता को जीवन की सच्चाइयों से जोड़ने का काम में महारथ सिद्ध कर रहे थे, जब हिंदी गद्य “प्रेमचंद युग” के नाम से जाना जा रहा था, तब उस नयरी लहर के मध्य एक बिल्कुल नयी धारा प्रारंभ करना सरल कार्य नहीं था।
आलोचकों और पाठकों की प्रतिक्रिया की चिंता किये बिना कहानी और उपन्यास लिखना जैनेन्द्र के लिए कितना कठिन रहा होगा इसका अनुमान किया जा सकता है। बहुत से आलोचकों ने जैनेन्द्र के साहित्य के व्यक्तिनिष्ठ वातावरण और स्वतंत्र मानसिकता वाली नायिकाओं की आलोचना भी की परंतु व्यक्ति की रूढ़ियों, प्रचलित मान्यताओं और प्रतिष्ठित संबंधों से हट कर देखने और दिखाने के संकल्प से जैनेन्द्र विचलित नहीं हुए। जीवन और व्यक्ति को बंधी लकीरों के बीच से हटा कर देखने वाले जैनेन्द्र के साहित्य ने हिंदी साहित्य को नयी दिशा दी जिस पर बाद में हमें अज्ञेय चलते हुए दिखाई देते है।
उपन्यासकार के रूप में जैनेंद्र कुमार का परिचय
उनके प्रारंभ के उपन्यासों “परख” (1929), “सुनीता’ (1935) और “त्यागपत्र” (1937) ने व्यस्क पाठकों को सोचने के लिए बहुत सी सामग्री दी। “हिंदी साहित्य का इतिहास” में गोपाल सय जी लिखते हैं, “उनके उपन्यासों की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है और वे ‘शहर की गली और कोठरी की सभ्यता’ में ही सिमट कर व्यक्ति पात्रों की मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिश करते है।”
जैनेन्द्र के पात्र बने-बनाये सामाजिक नियमों को स्वीकार कर, उनमें अपना जीवन बीताने की चेष्टा नहीं करते अपितु उन नियमों को चुनौती देते है। यह चुनौती प्राय: उनकी नायिकाओं की ओर से आती है जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में मुख्य पात्र भी है। सन् 1930-35 या 40 में स्त्रियों का समाज की चिंता किये बिना, विवाह संस्था के प्रति प्रश्न उठाना स्वयं में नयी बात थी।
जैनेन्द्र के पात्रों में यह शंका, उलझन दिखाई देती हैं कि स्त्रियाँ संबंधों की मर्यादा में रहते हुए भी स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाए रखना चाहती हैं जो नि:संदेह भरतीय परिवेश में आज, यानि जैनेन्द्र के इन उपन्यासों के समय के 60-70 वर्ष बाद भी यथार्थ नहीं हैं जैनेन्द्र जानते थे कि वह जिस नारी स्वतंत्रता के विषय में सोच रहे हैं, वह एक दुर्लभ वस्तु है।
समाज के स्वीकार और प्रतिक्रिया के प्रश्नों से वे भी उलझे थे इसलिए वे प्रश्नों को उठाते तो हैं किंतु उनका उत्तर स्पष्ट रूप से नहीं देते बल्कि कहानी को एक मोड़ पर लाकर छोड़ देते जहाँ से पाठक की कल्पना और भाव बुद्धि अपने इच्छानुसार विचरती हैं। बहुधा यह स्थिति खीज भी उत्पन्न करती थी, विशेषकर उस समय में जब ये उपन्यास लिखे गये थे। प्रेमचंद के उपन्यासों में समस्याओं का प्रायः समाधान हुआ करता था, उस समय एक भिन्न प्रकार की समस्या उठा कर, बिना निदान दिए, छोड़ देना निस्संदेह एक नई शुरूआत थी।
उनके उपन्यासों “कल्याणी”, “सुखदा”, “विवर्त”, “व्यतीत”, जयवर्धन” आदि में उनके स्त्री पात्र समाज की विचारधारा को बदलने में असमर्थ होने के कारण अंतत: आत्मयातना के शिकार बनते हैं यह आत्मयातना उनके जीवन दर्शन का एक अंग बन जाती है। उनमें समाज से अलग हट कर अपने अस्तित्व को ढूँढ़ने का आत्मतोष तो हैं किंतु उस स्वतंत्र अस्तित्व के साथ रह न पाने की निराशा भी है। जैनेन्द्र के उपन्यासों ने निस्संदेह साहित्यक विचारधारा और दर्शन को नई दिशा दी अज्ञेय के उपन्यास इसी दिशा में आगे बढ़े हुए लगते हैं।
कहानीकार के रूप में जैनेंद्र कुमार
जैनेन्द्र की कहानियों में भी हमें यह नई दिशा दिखाई देती है। आलोचकों का मानना है कि “उन्होंने कहानी को ‘घटना’ के स्तर से उठाकर ‘चरित्र’ और ‘मनोवैज्ञानिक सत्य’ पर लाने का प्रयास किया। उन्होंने कथावस्तु को सामाजिक धरातल से समेट कर व्यक्तिगत और मनोवैज्ञानिक भूमिका पर प्रतिष्ठित किया।” चाहे उनकी कहानी “हत्या” हो.या “खेल” “अपना-अपना भाग्य”, “बाहुबली”, “पाजेब“, “ध्रुवतारा”, “दो चिड़ियाँ” आदि सभी कहानियों में व्यक्ति मन की शंकाओं, प्रश्नों को प्रस्तुत करती है।
कहा जा सकता है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों और कहानियों में व्यक्ति की प्रतिष्ठा हिंदी साहित्य में नई बात थी जिसने न केवल व्यक्ति और समाज के पारस्परिक संबंध नई व्याख्या की बल्कि व्यक्ति मन को उचित महत्ता भी दिलवाई। जैनेन्द्र के इस योगदान को हिंदी साहित्य कभी नहीं भूल सकता।
जैनेंद्र कुमार की कृतियाँ
कहानी संग्रह: फाँसी, जय संधि, वातायन, एक रात, धुयात्रा दोचिड़िया, पाजेब, नीलम देश की राजकन्या, खेल।
उपन्यास: परख, सुनीता, त्यागपत्र।
निबंध संग्रह: प्रस्तुत प्रश्न, जड़ की बात, मंथन, सोच-विचार, पूर्वोदय।
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