मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक परिचय (कहानियाँ, उपन्यास, व्यक्तित्व और जीवनी)

हिन्दी साहित्य के उपन्यास और कहानियों की बात हो, और मुंशी प्रेमचंद का नाम न आए; ऐसा हो ही नहीं सकता है। प्रेमचंद जी की कई रचनाएँ आपने अपने स्कूल और कॉलेज की पुस्तकों में भी पढ़ा होगा। इन्हें हिंदी का कथा-सम्राट कहा जाता है। और आज का यह लेख ‘मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक परिचय’ ही है।

मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय

मुंशी प्रेमचंद का जन्म 1880 ई. में उत्तरप्रदेश के एक सामान्य से गाँव लमही के एक निम्नमध्यमवर्गीय कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके घर का वातावरण ग्रामीण किसानों के घरों के वातावरण जैसा ही था। बचपन से ही प्रेमचंद चुलबुले स्वभाव के थे। शैशव-काल में माता की मृत्यु हो जाने के कारण वे विमाता की उपेक्षा और कुछ हद तक उनकी निर्ममता के शिकार हुए।

प्रेमचंद के बचपन का नाम नवाबराय था। नवाबराय को क़िस्सा-कहानियाँ पढ़ने में खूब मन लगता था।

उन्होंने किशोर उम्र में ही चोरी-छिपे अलिफ लैला, तिलस्मे होशरूबा आदि पढ़ डाले थे। रतननाथ सरशार, मिर्ज़ा रुसवा और मौलाना शारर आदि की रचनाएँ उनकी प्रिय रचनाएँ थीं।

इन्होंने मात्र इंटर तक की शिक्षा पायी थी और वह भी कायस्थ-कुल की तत्कालीन परम्परानुसार उर्दू माध्यम से। इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम उर्दू में ही लिखना प्रारम्भ किया था। उसकी आरम्भिक प्रकाशित कृतियाँ उर्दू में ही हैं। इनके लेखन के प्रेरणा-स्रोत दया नारायण निगम थे। निगम जी आर्यसमाजी थे और अख़बार निकालते थे। निगम जी से प्रभावित होने के कारण ही प्रेमचंद की विचारधारा पर आर्य समाज का विशिष्ट प्रभाव पड़ा।

सर्वप्रथम उन्होंने ‘इंस्पेक्टर ऑफ कॉलेज’ की सरकारी नौकरी से अपनी आजीविका प्रारम्भ की। प्रेमचंद का पहला विवाह सफल नहीं रहा। अतः उन्होंने दूसरा विवाह एक विधवा स्त्री शिवरानी देवी से किया। जिनसे उनके कई पुत्र हुए। श्रीपतराय और अमृतराय, उनके पुत्रों में से साहित्य के कृति-व्यक्तित्व रहे। प्रेमचंद का निधन सन 1936 ई. में हो गया।

मुंशी प्रेमचंद का साहित्यिक परिचय

प्रेमचंद की पहली प्रकाशित कृति उर्दू में है। इस कृति का नाम ‘सोजेवतन’ है। ‘सोजेवतन’ में देशभक्तिपूर्ण कहानियाँ संग्रहित हैं। इस कृति को अंग्रेज सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। पहले वे नवाबराय के नाम से लिखते थे किंतु सरकार की भृकुटी तन जाने के कारण उन्हें ‘प्रेमचंद’ के छद्म नाम का आश्रय ग्रहण करना पड़ा।

प्रेमचंद के छद्म नाम के ग्रहण के साथ ही उन्होंने उर्दू में लिखना छोड़ दिया और हिंदी में लिखने लगे। हिंदी के पाठकों के बीच उन्हें अपार यश और लोकप्रियता प्राप्त हुई। फिर तो वे हिंदी के ही होकर रह गए।

  • प्रेमचंद को हिंदी का कथा-सम्राट कहा जाता है।
  • इनसे पूर्व हिंदी में नाममात्रा की कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए थे।
  • इनसे पूर्व का कथा-साहित्य आधिभौतिक चमत्कारों, परि कथाओं, काल्पनिक मनोरंजक गल्पों तथा जासूसी आख्यानों का पिटारा भर था।
  • उस समय के कथा-साहित्य का जीवन के यथार्थ से कोई सम्बंध नहीं था।
  • उसमें न तो भाषा की एकरूपता और स्थिरता थी और न ही कलात्मकता या सौष्ठव।
  • सर्वप्रथम प्रेमचंद ने ही हिंदी कथा-साहित्य का सम्बंध जीवन और जगत से जोड़ा।
  • उन्होंने हिंदी कथा-साहित्य को कलात्मक-विन्यास भी प्रदान किया।
  • हिंदी की कहानियों और उपन्यासों को उत्कर्ष की उस महत्तम ऊँचाई पर पहुँचाया जिस शिखर पर अंग्रेजी, फ्रेंच और रूसी आदि भाषाओं की कहानियाँ और उपन्यास उस समय तक पहुँच चुके थे।
  • विश्व की उन्नत भाषाओं के कथा-साहित्य ने प्रेमचंद की लेखनी का संस्पर्श पाकर वह यात्रा पचास वर्षों में ही पूरी कर ली।
  • हिंदी कहानी एवं उपन्यास लेखन के क्षेत्र में उनके योगदान का मूल्यांकन आलोचकों ने उन्हें ‘कथा-सम्राट’ कहकर किया है।

मुंशी प्रेमचंद का व्यक्तित्व

प्रेमचंद को ग्रामीण और कृषक जीवन की कठिनाइयों, निर्धनता और अभावों का अत्यंत समीपी परिचय था। वे उनके रीति-रिवाज, स्वभाव एवं आचरण के निकट जानकार थे। ग्रामीण संस्कृति का उन्हें आत्मीय परिचय प्राप्त था। उन्होंने भारतीय कृषकों को ज़मींदारों और उनके कारिंदों के जुल्म की चक्की में पिसते देखा था।

उन्होंने यह भी देखा था कि किस प्रकार ज़मींदार-साहूकार, सरकारी अधिकारी और कर्मचारी गोलबंद होकर उनका शोषण कर रहे थे। उनकी कहानियों और उपन्यासों में ग्रामीण जीवन का सजीव चित्र मिलता है। एक आलोचक ने ठीक ही कहा है कि प्रेमचंद मूलतः ग्रामीण जीवन के चित्रकार हैं।

उन्होंने ग्रामीण जीवन की समस्त खूबियों और ख़ामियों, उनकी सरलता और दुष्टता, उनकी सहजता और जटिलता, सम्पन्नता और विपन्नता, मूर्खता और धूर्तता, बेबसी और ज़्यादती सब कुछ का यथार्थपूर्ण चित्रण किया है। उन्होंने कृषक जीवन के किसी भी पहलू को अनछुआ नहीं छोड़ा।

प्रेमचंद ने सामाजिक यथार्थ के चित्रण के क्रम में उसकी विसंगतियों को उभारा। ग्रामीण एवं नगरीय पारिवारिक जीवन (संयुक्त परिवार) की विडम्बनाओं को उजागर किया। प्रेमचंद का कथा-साहित्य भारतीय-राष्ट्रीय जीवन की महागाथा है, महाकाव्य है। वह तत्कालीन उत्तर भारत का सवाक् चित्र है।

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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ रचनाएँ

प्रेमचंद ने सर्वप्रथम उद्देश्य-प्रधान उपन्यास और कहानियाँ लिखी। उद्देश्य-प्रधान कहानियों एवं उपन्यासों में उनके निजी दृष्टिकोण और विचार प्रतिफलित हुए हैं। दूसरे प्रकार के उपन्यासों और कहानियों में चरित्र की प्रधानता है।

प्रेमचंद की कुछ प्रतिनिधि कहानियों में- बड़े घर की बेटी, पंच परमेश्वर, नशा, नामक का दारोग़ा, बूढ़ी काकी, आत्माराम, मुक्तिमार्ग, ईदगाह, शतरंज के खिलाड़ी और कफ़न आदि की गणना होती है।

उनके उपन्यासों में सेवासदन, ग़बन, प्रतिज्ञा, निर्मला, प्रेमाश्रम, रंगभूमि और गोदान आदि प्रमुख हैं। उनके द्वारा लिखित कहानियों की संख्या लगभग तीन सौ हैं और उपन्यासों की संख्या 17-18 है।

कलात्मकता की दृष्टि से उनके कथा-साहित्य के तीन सोपान माने जा सकते हैं। सर्वप्रथम उन्होंने लक्ष्य के धरातल से कहानियाँ और उपन्यास रचे, तत्पश्चात् आदर्शप्रेरित रचनाएँ प्रस्तुत की और अंततः विशुद्ध यथार्थवादी कहानियों और उपन्यासों की रचना की।

उनकी कहानियों और उपन्यासों में कथ्य और शिल्प के स्तर पर व्यापक समानांतरता मिलती है। अपने सृजन के मध्यम पड़ाव पर प्रेमचंद ने जिस कथा-साहित्य की रचना की, आलोचकों ने उसे ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवादी’ रचनाएँ कही हैं। लेखन के अंतिम सोपान पर पहुँचते-पहुँचते प्रेमचंद का आदर्श से मोहभंग हो गया। प्रेमचंद के कथा-साहित्य की एक विशेषता आदि से अंत तक, बराबर परिलक्षित होती है। यह विशेषता है उनके आधार का मनोवैज्ञानिक होना है।

प्रेमचंद का दृष्टिकोण उदार और मानवतावादी था। वे मनुष्य की महानता के पक्षधार और सार्वभौम मानवता के समर्थक थे। इसलिए उनका साहित्य किसी एक देश या किसी एक काल की सीमा में आबद्ध नहीं है। इसी सार्वजनिकता के कारण उनकी कहानियों और उपन्यासों के अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हुए। उनकी कृतियों को विश्वजनीन आदर मिला।

प्रेमचंद के कथा-साहित्य की भाषा वह हिंदी है, जिसे हम ‘हिंदुस्तानी‘ कहते हैं। उनकी भाषा अत्यंत सहज, मुहावरेदार और लोकोक्तियों से परिपूर्ण है। एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में उन्हें जो अपार लोकप्रियता मिली, इसका बहुत कुछ श्रेय उनकी भाषा को जाता है।

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