वीरगाथाकाल का समय और विशेषताएँ: आदिकाल की पृष्ठभूमि और परिस्थितियाँ

वीरगाथाकाल को आदिकाल या सिद्ध-सामंत काल भी कहा जाता है। इस काल का समय सं. 1000 से 1375 या 943 ई. से 1318 ई. माना गया है। और आज हम वीरगाथाकाल का समय, पृष्ठभूमि, परिस्थितियाँ और विशेषताओं के बारे में बात करने वाले हैं।

भारतीय इतिहास का यह युग राजनीतिक दृष्टि से गृह-कलह, पराजय एवं अव्यवस्था का काल था। ऐसी साम्प्रदायिक, धार्मिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विषमता के युग में साहित्य-निर्माण का दायित्व विशेषतः चारणों, भाटों एवं पेशेवर कवियों पर आ पड़ा। राजाओं में वीरता का भाव जागृत करने के लिए एक ओर वीर-काव्यों की रचनाएँ हुईं तो दूसरी ओर शांति के समय में शृंगारपरक रचनाएँ।

वीरगाथा काल की पृष्ठभूमि

हिंदी साहित्य का जन्म ऐसे समय में हुआ था जब भारतवर्ष पर उत्तर-पश्चिम की ओर से निरंतर मुसलमानों के आक्रमण हो रहे थे। राजा और राजाश्रित कवि छोटे-छोटे राजयों को ही राष्ट्र समझ बैठे थे। राजपूत राजाओं को अपने व्यक्तिगत गौरव की रक्षा का अधिक ध्यान था, देश का कम।

राज्य एवं प्रभाव वृद्धि की भावना से ये लोग परस्पर युद्ध करते थे। कभी-कभी उनका उद्देश्य केवल शौर्य प्रदर्शन मात्रा होता था या किसी सुंदरी का अपहरण। राजपूतों में शक्ति, पराक्रम एवं साहस की कमी न थी, परंतु यह समस्त कोश पारस्परिक प्रतिद्वंदियों में समाप्त किया जा रहा था। अतः राजपूत शत्रुओं का सामना करने में एक सूत्रबद्ध सामूहिक शक्ति का परिचय न दे सके। मुहम्मद गौरी के भयानक आक्रमणों ने राजपूत राजाओं को जर्जर कर दिया।

आदिकाल की परिस्थितियाँ

वीरगाथाकाल युद्ध का युग था। उस समय के साहित्यकार चारण या भाट थे, जो अपने आश्रयदाता राजा के पराक्रम, विजय और शत्रु-कन्याहरण आदि का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते अथवा युद्ध-भूमि में वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगे भरकर सम्मान प्राप्त करते। साहित्य समाज का प्रतिबिम्ब, प्रतिरूप और प्रतिच्छाया होता है, इस नियम के अनुसार तत्कालीन साहित्य में वीरता की भावना आना अवश्यम्भावी था। इस काल में दो प्रकार के- अपभ्रंश तथा देश भाषा काव्यों का निर्माण हुआ।

जैनाचार्य हेमचंद, सौमप्रभसूरि, जैनाचार्य मेरुतुँग, विद्याधर तथा शार्गंधर, आदि कवु अपभ्रंश काव्य के प्रमुख निर्माता थे। देश भाषा में वीरगाथा काव्य दो रूपों में मिलता है- प्रबंध काव्य के साहित्यिक रूप में तथा वीर गीतों के रूप में। ये ग्रंथ रासो कहे जाते थे। कुछ विद्वान रासों के सम्बंध “रहस्य” से मानते हैं और कुछ रास (आनंद) से मानते हैं।

देश भाषा काव्य में प्रमुख आठ पुस्तकें आती हैं- ख़ुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचंद्रप्रकाश, जयमयंकरसचंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ तथा विद्यापति पदावली। इस काल में चंद्रबरदायी भट्ट प्रतिनिधि एवं प्रमुख कवि थे, जिन्होंने ‘पृथ्वीराज रासो’ नामक हिंदी के प्रथम महाकाव्य का निर्माण किया। इस ग्रंथ में ढाई हजार पृष्ठ तथा 69 समय (सर्ग) हैं।

इसमें कवित्त, दूहा, तीमर, त्रोटक, गाहा और आर्या, सभी छंदों का व्यवहार किया गया है। यह प्रबंध-काव्य उस काल का प्रतिनिधि ग्रंथ माना जाता है, इसमें वीर-भावों की बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति है, कल्पना की उड़ान तथा उक्तियों की चमत्कारिता का सामंजस्य है।

वीरगाथाकाल की प्रमुख विशेषताएँ 

  • इस युग के साहित्यकार साहित्य-सृजन के साथ-साथ तलवार चलाने में भी दक्ष थे।
  • साहित्य का एकांगी विकास हुआ।
  • वीर काव्यों की प्रबंध तथा मुक्तक दोनों रूपों में रचनाएँ हुईं।
  • काव्यों में वीर रस के साथ श्रृंगार का पुट भी पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
  • कल्पना की प्रचुरता एवं अतिशयोक्ति का आधिक्य।
  • काव्य का विषय युद्ध और प्रेम।
  • युद्ध का सजीव वर्णन।
  • इतिवृत्तात्मकता की अपेक्षा काव्य की मात्रा का आधिक्य।
  • आश्रयदाताओं की भरपेट प्रशंसा।
  • केवल वीर काव्य था, राष्ट्रीय काव्य नहीं।
  • साहित्यकारों में वैयक्तिक भावना की प्रधानता तथा राष्ट्रीय भावना का अभाव।

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