विद्यापति का साहित्यिक परिचय, काव्य सौंदर्य, श्रृंगार वर्णन एवं जीवनी

हिंदी साहित्य में गद्य और पद्य दोनों विधाओं का काफ़ी महत्त्व है। कहानी, उपन्यास के अलावा कविताएँ भी समाज के कई समस्याओं और लेखक और कवि के अनुभवों को अभिव्यक्त करते हैं। विद्यापति भी काफ़ी प्रसिद्ध कवि थे, और आज हम विद्यापति का साहित्यिक परिचय, काव्य सौंदर्य, श्रृंगार वर्णन एवं जीवनी के बारे में बात करने वाले हैं।

विद्यापति का जीवन परिचय

विद्यापति का जन्म 1380 ई. के आसपास बिहार के मधुबनी जिले के विस्पी नामक गाँव में हुआ था। यद्यपि उनके जन्म कात के संबंध में प्रामाणिक सूचना उपलब्ध नहीं है तथा उनके आश्रयदाता मिथिला नरेश राजा शिव सिंह के राज-काल के आधार पर उनके जन्म और मृत्यु के समय का अनुमान किया गया है। विद्यापति साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि के प्रकांड विद्वान थे। सन् 1460 ई. में उनका देहावसान हो गया।

विद्यापति का साहित्यिक परिचय

विद्यापति बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि और तर्कशील व्यक्ति थे। उनके विषय में यह विवाद रहा है कि वे हिंदी के कवि हैं या बंगला भाषा के, किंतु अब यह स्वीकार्य तथ्य है कि वे मैथिली भाषा के कवि थे।

वे हिंदी साहित्य के मध्यकाल के ऐसे कवि हैं जिनके काव्य में जनभाषा के माध्यम से जन स्कृति को अभिव्यक्ति मिली है। वे साहित्य, संस्कृति, संगीत, ज्योतिष, इतिहास, दर्शन, न्याय, भूगोल आदि विविध विषयों का गंभीर ज्ञान रखते थे। उन्होंने संस्कृत, अपभ्रंश और मैथिली तीन भाषाओं में काव्य-रचना की है।

इसके साथ ही उन्हें अपनी समकालीन कुछ अन्य बोलियों अथवा भाषाओं का ज्ञान था। वे दरबारी कवि थे, अतः दरबारी संस्कृति का प्रभाव उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाओं-‘कीर्तिलता’ व ‘कीर्तिपताका’ पर देखा जा सकता है। उनकी ‘पदावली’ ही उनको यशस्वी कवि सिद्ध करती हैं। उनकी प्रमुख रचनाएँ कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पुरुष-परीक्षा, भू-परिक्रमा, लिखनावली और पदावली है।

विद्यापति का काव्य-सौंदर्य

विद्यापति के पद मिथिला-क्षेत्र के लोक-व्यवहार व सांस्कृतिक अनुष्ठान में खुलकर प्रयुक्त होते हैं। उन पदों में लोकानुरंजन व मानवीय प्रेम के साथ व्यावहारिक जीवन के विविध रूपों को बड़े मनोरम व आकर्षक ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

राधा-कृष्ण को माध्यम बनाकर लौकिक प्रेम के विभिन्न रूपों को वर्णित किया गया है, किंतु साथ ही विविध देवी-देवताओं की भक्ति से संबंधित पद भी लिखे हैं जिससे एक विवाद ने जन्म लिया किविद्यापति शृंगारी कवि हैं या भक्त कवि। विद्यापति को आज शृंगारी कवि के रूप में मान्यता प्राप्त है।

विद्यापति मूलतः मैथिली के कवि हैं। उन्होंने संस्कृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी पर्याप्त साहित्य की रचना की है। उनकी भाषा लोक-व्यवहार की भाषा है। वास्तव में, उनकी रचनाओं में जनभाषा में जनसंस्कृति की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी भाषा में आम बोलचाल के मैथिली शब्दों का पर्याप्त प्रयोग हुआ है।

विद्यापति के काव्य में प्रकृति के मनोरम रूप भी देखने को मिलते हैं। ऐसे पदों में पद-ललित के साथ कवि के अपूर्व कौशल, प्रतिभा तथा कल्पनाशीलता के दर्शन होते हैं। समस्त काव्य प्रेम व सौंदर्य की निश्छल व अनूठी अभिव्यक्ति देखने को मिलती है।

विद्यापति मूलतः शृंग के कवि हैं, माध्यम राधा व कृष्ण हैं। इन पदों में अनुपम माधुर्य है। ये पद गीत-गोविंद के अनुकर करते हुए लिखे गए प्रतीत होते हैं। उन्होंने भक्ति व शृंगार का ऐसा सम्मिश्रण प्रस्तुत किया जैसा अन्यत्र मिलना संभव नहीं है। निष्कर्ष रूप में कहें तो यह कहना अनुचित न होगा।

विद्यापति के वर्ण्य-विषय के तीन क्षेत्र हैं। अधिकांश पदों में राधा और कृष्ण के प्रेम के विवि पक्षों का वर्णन हुआ है। कुछ पद शुद्ध रूप से प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हैं और कु पद विभिन्न देवी- देवताओं की स्तुति में लिखे गए हैं।

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