विश्व एड्स दिवस 1 दिसम्बर को मनाया जाता है जिसका मुख्य उद्देश्य एड्स रोग के बारे में जागरूकता फैलाना है। वर्ष 1988 से लेकर अभी तक प्रत्येक वर्ष 1 December को World AIDS Day संयुक्त राष्ट्र (United Nations) के सभी सदस्य देशों के द्वारा मनाया जाता है, जिसके अंतर्गत अलग-अलग तरह से प्रचार-प्रसार कर एड्स के बाई में लोगों को जागरूक किया जाता है।
एड्स के बारे में जानकारी
एड्स रोग आज पूरे विश्व में एक महामारी का रूप धारण कर चुका है। आये दिन अखबारों में इसके प्रकोप के कारण हुई मृत्यु के आंकड़ों से इसकी भयावहता का पता चलता है। इसकी जानकारी या अज्ञानता से आंकड़ों में किसी प्रकार की गिरावट नहीं आ रही। सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं के बावजूद एड्स के रोगियों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। लोगों में इस रोग को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं व उनमें भय व्याप्त है।
देश की सांस्कृतिक सभ्यता व सामाजिक परिवेश में इसके रोगी पाना असंभव सा लग रहा था लेकिन देश में पश्चिमी सभ्यता की काली छाया पड़ने से बड़े-बड़े शहरों में इसके रोगी पाये जा रहे हैं। आज की युवा पीढ़ी पश्चिमी संस्कृति से ओत-प्रोत हो विलासिता पूर्ण जीवन बिताने में विश्वास रखती है।
भारत में एड्स का मामला 1986 में प्रकाश में आया था। वर्ष 1987 में सरकार द्वारा एड्स नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया। राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन के हिसाब से भारत में एच. आई. वी. संक्रमित रोगियों की संख्या 1998 में तैंतीस लाख थी। वर्ष 2000 में यह संख्या बढ़कर 38 लाख 70 हजार हो गई थी ।
वर्तमान में विश्व वैज्ञानिक प्रगति के कारण जहां मानव ने कई रोगों पर विजय प्राप्त करने में सफलता पाई है वहीं उसे कुछ नये रोगों से दो-चार होना पड़ रहा है। एक समय था जब क्षय रोग, काली खांसी, हैजा, प्लेग, मलेरिया आदि रोग मौत के कारण माने जाते थे। इनमें से किसी रोग का नाम सुनते ही लोगों में भय उत्पन्न हो जाता था।
धीरे-धीरे चिकित्सा क्षेत्र में किये जा रहे अनुसंधानों व खोजों द्वारा चिकित्सा विशेषज्ञों ने इन रोगों का उपचार ढूंढ निकाला है। बावजूद इसके कई नये रोगों के नाम समाचार पत्रों में पढ़ने व देखने को मिल रहे हैं। इनमें से कुछ रोग ऐसे हैं जिन पर अभी शोध व अनुसंधान चल रहे हैं।
एड्स रोग को लेकर समाज में तरह-तरह की भ्रांतियां हैं। दरअसल एड्स के बारे में ज्यादातर लोगों को सही जानकारी न होने के कारण इस रोग का लोगों में भय व्याप्त है।
वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार जब किसी व्यक्ति के शरीर में एड्स का विषाणु (एच. आई. वी.) प्रवेश करता है तो वह व्यक्ति एच. आई. वी. से संक्रमित कहलाता है। उस व्यक्ति के संक्रमित होने के दस से पन्द्रह साल बाद उसके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता धीरे-धीरे खत्म होनी शुरू हो जाती है। दरअसल एच. आई. वी. के संक्रमण से रक्त में प्रतिरोधक क्षमता को कायम रखने का काम करने वाली CD नामक कोशिकाएं धीरे-धीरे कम होने लगती हैं।
चिकित्सकों के अनुसार एक स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में इन कोशिकाओं की संख्या प्रति एक क्यूबिक मिलीलीटर रक्त में कम से कम एक हजार होनी चाहिए। लेकिन एच. आई. वी. संक्रमित व्यक्ति के शरीर में संक्रमण के दस पन्द्रह साल बाद इनकी संख्या घटकर महज दो सौ या इससे नीचे चली जाती है तो वह व्यक्ति एड्स रोगी कहलाता है।
एड्स अपने आप में कोई रोग नहीं है। एड्स से ही अभी तक किसी की मौत नहीं हुई है। लेकिन समाज में अधिकांश लोगों का मानना है कि एड्स एक जानलेवा बीमारी है । दरअसल एड्स पीड़ित व्यक्ति में प्रतिरोधक क्षमता कम होने से उसे यदि कोई और बीमारी; जैसे- टी. बी., मलेरिया, उल्टी, दस्त या अन्य कोई बीमारी हो जाती है तो उसके लिए उपचार कारगर नहीं रह जाता क्योंकि उसके शरीर का प्रतिरोधक तंत्र करीब-करीब नष्ट हो चुका होता है। इसलिए एड्स रोगी के शरीर पर दवाओं का असर नहीं पड़ता और वह मौत के मुंह में चला जाता है।
अब तक एड्स का न तो कोई टीका उपलब्ध है और न ही कोई प्रभावी दवा ही । हालांकि एंटिरेट्रोवायरल दवाएं बाजार में मौजूद हैं जिनसे एड्स रोगी की आयु थोड़ी बढ़ जाती है। यह दवा रक्त में मौजूद एच. आई. वी. विषाणुओं की संख्या को बढ़ने से रोकती है। एड्स का विषाणु दो से चार, चार से आठ के क्रम में अपनी वृद्धि करता है।
यदि कोई महिला एच. आई. वी. संक्रमित है तो उससे उत्पन्न होने वाली संतान के एच. आई. वी. संक्रमित होने की आंशका चालीस से पचास फीसदी तक रहती है। लेकिन संक्रमित मां का स्तन पान करने वाले बच्चों के एच. आई. वी. संक्रमित होने की वैज्ञानिकों द्वारा अभी तक पुष्टि नहीं की गई है। सावधानी बरतने के लिए चिकित्सक एच. आई. वी. संक्रमित मां को यह सलाह अवश्य देते हैं कि वह अपने बच्चे को स्तन पान न कराये ।
एड्स के ज्यादा मामले असुरक्षित यौन संबंधों के कारण फैलते हैं। एड्स पर नियंत्रण पाने के लिए सरकार को यौन शिक्षा लागू करनी चाहिए। लेकिन इस शिक्षा के लागू करने के बावजूद भी ग्रामीणों व अशिक्षितों को इस रोग के बारे में जागृत करने और इससे बचाव के उपाय बताने के लिए सरकार को ऐसा सूचना तंत्र विकसित करना होगा जो किसी भी भाषा जानने वाले को आसानी से समझ आ सके।
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