रीतिकाल का नामकरण, सीमांकन और प्रवृत्तियाँ

साहित्य के क्षेत्र में प्राय: ऐसा देखा गया है कि किसी भी कालखण्ड के निर्माण में अनेक प्रवृतियाँ प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान रहती हैं। तथा ये प्रवृत्तियाँ समय के साथ-साथ और भी ज्यादा व्यापक एवं बलवती होती चली जाती है। अतः किसी भी कालखण्ड का नामकरण हम उन्हीं प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर करते हैं।

रीतिकाल का नामकरण

हिन्दी साहित्य का उत्तर-मध्य काल, जिसे हम कई नामों से अभिहित करते हैं उनमें प्राय: सामान्य रूप से श्रृंगारपरक लक्षण ग्रंथों की रचना हुई। परंतु फिर भी इस काल के नामकरण में विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। कुछ विद्वानों ने प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर रीतिकाल का नामकरण किया है तो कुछ विद्वानों ने परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किसी भी कालखण्ड के निर्माण में प्रवृत्तियों एवं प्रयुक्तियों को ही आधार मानकर उनका नामकरण किया है। अतः उन्होंने रीतिकाल के नामकरण में भी प्रवृत्तियों को ही आधार मानकर इस काल को रीतिकाल नाम से सम्बोधित करना ज्यादा उचित समझा है तथा इसकी समय सीमा भी इन्होंने 1700 – 1900 विक्रम संवत् माना है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने रीतिकाल के लिए उपर्युक्त ‘रीति‘ शब्द संस्कृत के काव्यशास्त्र की रीति से लिया है, जिससे उनका अभिप्राय – रस, अलंकार, नायिका भेद आदि काव्यागों पर लक्षण ग्रंथो की रचना के रूप में होती रही है। और शुक्ल जी ने जिस काल के लिए रीतिकाल नाम को स्वीकार किया है उस काल के लिए पहले से ही कविरीति, कवित्तरीति, अंलंकाररीति इत्यादि शब्द प्रचलित थे।

मिश्रबंधुओं ने इस काल को अलंकृत-काल कहकर इसके औचित्य पर प्रकाश डाला है, तो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने इस काल को रीतिकाल की संज्ञा दी है। वहीं दूसरी और, पण्डित विश्वनाथ ने इस काल को श्रृंगारकाल कहकर इस काल की शोभा बढ़ाई है, तो पं० राहुल सांकृत्यायन ने इस काल को दरबारी काल कहकर इस काल के नामकरण की सार्थकता पर प्रकाश डाला है।

चूंकि इस काल में कवित कामिनी की शोभा पर ही ज्यादा ब दिया गया था शायद इसलिए मिश्रबंधुओं ने इसका नामकरण अलंकार काल रखा। परंतु केवल अलंकार ही इस काल की मुख्य प्रवृत्ति नहीं थी अतः कई विद्वानों ने मिश्रबंधु द्वारा प्रदत्त अलंकृत काल नामकरण के औचित्य को अस्वीकार किया है।

रीतिकाल का सीमांकन 

सीमा निर्धारण ही किसी भी काल की अवधि की रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका अदा करती है। जिस प्रकार साहित्य के अध्ययन में कवियों की प्रवृति का विवेचन करने के साथ-साथ वर्ण्य-विषयों के अनुसार रचनाओं का वर्ग विभाजन किया जाना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकार नामकरण के साथ-साथ किसी भी काल की प्रेरक परिस्थितियों का विश्लेषण के लिए उस काल की सीमा का निर्धारण भी आवश्यक होता है।

अतः जाहिर सी बात है कि रीतिकाल के नामकरण की इतनी चिंता करने वाले विद्वानों एवम् इतिहासकारों ने इस युग विशेष के सीमाकंन पर भी अपने अपने विचार प्रस्तुत किए होगें। सर्वप्रथम आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी ने संवत् 1700-1900 तक की अवधि को रीतिकाल की सीमा में रखा है।

चूंकि हिन्दी में रीतिग्रंथों की परम्परा चिंतामणि त्रिपाठी से चली आ रही है, अतः शुक्ल जी ने उन्हीं से इस काल का आरम्भ मानना उचित समझा है। विक्रम संवत् 1700 के कुछ आगे पीछे ही चिंतामणि त्रिपाठी द्वारा ‘काव्यविवेक’, ‘कविकल्पतरू’, ‘काव्यप्रकाश’ आदि ग्रंथों की रचना का पता चलता है।

इसके साथ ही, उसी समय पिंगल और छंदशास्त्र जैसी पुस्तकों की भी रचना हुई। अतः जाहिर सी बात है कि इसी अवधि ने इसकी सीमा को निर्धारित किया। हालांकि इस अवधि के प्रारंभिक व अंतिम छोरों की अवधि के बारे में अधिकांश विद्वान व इतिहासकारों ने सहमति दिखलाई हैं परंतु कहीं-कहीं पर कई तर्कें भी प्रस्तुत की गई है। जहाँ कहीं भी ऐसी असहमति आई है वह यह है कि अंतराल कुछ ही वर्षों का है।

इसे भी पढ़ें: रीतिकाल की सांस्कृतिक व साहित्यिक परिस्थितियाँ

Leave a Comment