रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां और विशेषताएँ

रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां हैं: वीरता, आलंकारिकता, छंद विधान, प्रकृति चित्रण, नीति, शिल्प, और भक्ति भावना।

रीतिकाव्य की प्रवृत्तियाँ

जैसा कि आप जानते हैं कि रीतिकालीन साहित्य का निर्माण दरबारी वातावरण में हुआ। इसीलिए तत्कालीन दरबारी कवि ने राजाओं की प्रशंसा हेतु इन कवियों ने विलासी आश्रयदाताओं की मनोवृत्ति के अनुकूल श्रृंगारिक एवं आलंकारिक कृतियों का निर्माण किया। यद्यपि तत्कालीन समय के साहित्य का प्रमुख स्वर श्रृंगार का था तथापि इस काल में ऐतिहासिक, पौराणिक छंद विधान, भक्ति, नीति विषयक ग्रंथों का भी प्रणयन हुआ।

वीर काव्य 

उत्तर मध्यकाल में वीर-काव्य की धारा प्रवाहित हुई। इस काल मे औरंगजेब के अन्याय और अत्याचार के विरूद्ध जो विदाह भावना जन्म ले रही थी, उसने इस वीर काव्य की परंपरा को नया जीवन दिया।

तत्कालीन साहित्यकारों ने अपने आश्रयदाताओं को आततायी के विरूद्ध खड़े होकर सबल टक्कर लेने के लिए नवीन रक्त का संचार करने के उद्देश्य से वीर-रसात्मक कविताओं की रचना की, ऐतिहासिकता पर आघृत होने के कारण रीतिकालीन वीरकाव्य जनता को प्रेरणा प्रदान करने में भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ। इन वीर रस के कवियों में राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है।

नीतिकाव्य

रीतिकालीन विविध प्रवृतियों में नीतिकाव्य की रचना भी एक प्रमुख प्रवृत्ति है। रीतिकाल में यह परंपरा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य तथा संतों ओर भक्तों की रचनाओं से होती हुई रीतिकाल में अपने संपूर्ण वैभव में उपस्थित हुई है।

इन कवियों के लिए नीति संघर्षमय दरबारी जीवन के घात प्रतिघात से उत्पन्न द्वंद्व के विवेचन के परिणामस्वरूप शांति का आधार थी। इसीलिए आत्मोपदेश ओर अन्योक्तिपरक छंदों में इनके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप प्राय: देखने को मिलती हैं। रीति काव्य का यन करने वाले में वृंद, घाघ, बेताल, गिरिधर कविराय का नाम विशेष रूपेण उल्लेखनीय है।

भक्ति भावना

रीतिकालीन कवि किसी विशिष्ट संप्रदाय के अनुयायी नहीं थे। ईश्वर की विभिन्न शक्तियों के रूप में आज साधारण आस्तिक हिंदूओं देवी-देवताओं के प्रति जो श्रद्धा और भक्ति का भाव रहता है, वहीं इनमें था । भक्ति की प्रवृत्ति रीतिगंथों के मंगलाचरणों, ग्रंथों की परिसमाप्ति पर आर्शीवचनों, भक्ति और शांतरसों, निर्वेदादि संचारियों तथा अलंकार-विवेचन संबंधी ग्रंथों में दिये गये उदाहरणों में मिलती है।

सामान्य रूप से विष्णु के राम और कृष्ण इन दो अवतारी रूपों में विशेष आस्था रखते हुए भी ये लोग गणेश, शिव और शक्ति में भी वैसी ही कवियों की भक्ति भी उनकी श्रद्धा रखते थे। रीतिकाल के सामाजिक जीवन और काव्य में भक्ति का आभास अनिवार्यतः विद्यमान है और नाकय-नायिका के लिए बार-बार ‘हरि’ और ‘राधिका’ शब्दों का प्रयोग किया गया है।

छंद विधान

रीतिकवियों द्वारा प्रयुक्त छंद-विधान तत्कालीन काव्य-प्रवृत्ति के सर्वथा अनुकूल थी। छंदशास्त्र की परंपरा का सूत्रपात पिंगलाचार्य के ‘छंद सूत्र’ से हुआ। इसी कारण छंदशास्त्र को इसके आदि आचार्य के नाम पर पिंगलशास्त्र भी कहा जाता हैं।

संस्कृत, प्राकृत्त और अश में छंद-शास्त्र लेखन की परंपरा विकसित होती हुई रीतिकाल तक चली आती है। संस्कृत में काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में छंद निरूपण का प्रकरण नहीं होता क्योंकि वहां छंदशास्त्र को छः विधाओं (वेदांगों) में परिगणित किया गया है। संस्कृत कवियों के समान रीतिकालीन कवियों ने भी रीति ग्रंथों में पिंगल न लेते हुए स्वतंत्र ग्रंथ की रचना की हैं।

आलंकारिकता

रीतिकाल में आचार्यों ने अलंकारों को काव्य का अनिवार्य अंग मानते हुए उनका सूक्ष्म निरीक्षण किया। तत्कालीन आचार्यो ने अलंकारशास्त्र को आधार बनाकर अपनी कविता की रचना करते हुए चमत्कारपूर्ण शैली से अपने विलासी आश्रयदाताओं के मन को आकृष्ट करने का प्रयास किया।

अलंकार विवेचन के लिए इन आचार्यों ने जयदेव के ‘चंद्रालोक’ अथवा अप्पय दीक्षित के ‘कुवलयानन्द’, ‘काव्यप्रकाश और ‘साहित्यदर्पण’ का आधार लिया। अधिकतर कवियों ने शब्दालंकार और अर्थलंकार को ही अपनी विवेचना का विषय बनाया जबकि कतिपय कवियों ने अर्थालंकार की ही विवेचना की है।

इन अलंकार विवेचकों के ग्रंथों में विवेचन शैली में अनेक प्रकार के नवीन प्रयोगों में मौलिकता दृष्टिगोचर होती है। इन आचार्यो एवं कवियों के उदाहरणों के वर्ण्य विषय भी श्रृंगार और राजप्रशस्ति के अतिरिक्त भक्ति और नीति संबंधी रहे है।

प्रकृति चित्रण

रीतिकालीन कवियों ने प्रकृति-चित्रण उद्दीपन रूप में किया है। चूँकि उस समय दरबारी कर्वाका ध्यान नारी पर केन्द्रित था, इसीलिए उसका ध्यान प्रकृति के स्वतंत्र रूप की ओर नहीं गया। इन कवियों ने प्रकृति का शुद्ध रूप में ही चित्रण ना करके मानसिक भावनाओं के अनुरूप इसका चित्रण किया।

विहर अवस्था में प्रकृति भी करूणामयी हो उठी और संयोग के समय प्रकृति का अंग-प्रत्यंग भी मुस्कराने लगता है। प्रकृति चित्रण के अंतर्गत छह ऋतुओं ओर बारहमासा वर्णन में समय-समय पर होने वाले त्यौहार, पत्र, उत्सव, क्रीड़ा, आदि के संबंध में भी बहुत कुछ लिखा गया। रीतिकालीन कवि सेनापति एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्हें ऋतु वर्णन में पर्याप्त सफलता मिली हैं।

रीतिकाल में प्रकृति के आलम्बन रूप में चित्रण का प्राय: अभाव ही है। लेकिन सेनापति के ‘कवित्त रत्नाकर‘ में प्रकृति का आलंबन रूप में भी सुंदर चित्रण मिलता है।

शिल्प

भाषा के प्रयोग में रीतिकालीन कवि अधिक जागरूक दिखाई देते हैं। उन्होंने सामान्तया ब्रजभाषा में साहित्य रचना की। इन कवियों के आलंकारिक प्रयोगों के प्रभाव से ब्रजभषा की कोमलता एवं सरसता में वृद्धि हई।

बजभाषा के लिए तो रीतिकाल ही स्वर्णकाल है। इस काल में काव्यशास्त्र की सूक्ष्म संवेदनाओं को संप्रेषित करने के लिए भाषा में इस प्रकार की शब्दावली प्रतिष्ठित हो गई जो चिंतन एवं अनुभव की अभिव्यंजना में रीतिकाल की सबसे महत्वपूर्ण वाहक बनी।

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