स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय, सामाजिक विचार, राजनीतिक, धार्मिक व शिक्षा संबंधी विचार

स्वामी दयानन्द सरस्वती भारत के एक प्रसिद्ध दार्शनिक, आर्य समाज के संस्थापक और भारतीय संस्कृति के वैदिक संरक्षक भी थे। वे एक साथ ही सन्त, समाज-सुधारक और देशभक्त थे। उन्होंने ही सबसे पहले वर्ष 1876 में ‘स्वराज‘ का नारा दिया जिसे बाद में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक जी ने आगे बढ़ाया। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने स्वामी दयानंद जी को ‘आधुनिक भारत का निर्माता‘ भी कहा था। आइए जानते हैं महर्षि दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय, सामाजिक विचार, धार्मिक व शिक्षा संबंधी विचार और स्वामी दयानंद सरस्वती के द्वारा आर्य समाज की स्थापना कब हुई?

स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय

स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म 12 फ़रवरी 1824 को काठियावाड़ के मोरवी रियासत में टंकारा नाम के जगह में एक मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनका बचपन का नाम मूलशंकर था। उनकी माँ का नाम यशोदाबाई था और पिता करशनजी लालजी तिवारी एक कर-कलेक्टर थे।

आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे संस्कृत, वेद, शास्त्रों व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए, और काफ़ी कम उम्र में ही जीवन-मरण के बारे में गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे कि उनके माता-पिता चिंतित हो गए। तब उनके माता-पिता ने उन्हें विवाह बन्धन में बाँधना चाहा, लेकिन मूलशंकर ने 21 वर्ष की अवस्था में घर को त्याग दिया।

मूलशंकर के मन में जिज्ञासा थी और अब उन्होंने कठिन यात्राओं एवं साधना का मार्ग अपना लिया। सम्भवतः उनका मन गुरु की तलाश में था। अक्टूबर 1860 ई. में उन्हें मथुरा में गुरु विरजानन्द जी मिले और 14 नवम्बर, 1860 ई. को उन्होंने गुरु विरजानन्द के सम्मुख सहज समर्पण कर दिया। यह समर्पण समस्त विश्व के लिए कल्याणकारी सिद्ध हुआ, अब उन्हें स्वामी दयानन्द’ का नाम मिला।

लगभग तीन वर्ष तक गुरु के चरणों में बैठकर उन्होंने साधना के साथ ज्ञानार्जन किया। 1863 ई. में धर्मोपदेश के लिए विदा करते हुए उन्हें गुरु ने सन्देश दिया, “देश का उपकार करो। सत् शास्त्रों का उद्धार करो। मत-मतान्तरों की अविद्या को मिटाओ और वैदिक धर्म फैलाओ।”

गुरु के आदेशों और उपदेशों को लेकर स्वामीजी सम्पूर्ण देश की यात्रा पर निकल पड़े। वैदिक धर्म की रक्षा का प्रश्न उनके सामने सबसे अधिक प्रमुख था। स्वामीजी ने इस स्थिति को दूर करने का संकल्प किया और उस समय जैसी परिस्थितियाँ थीं, उनमें उन्होंने वैदिक धर्म पर आक्रमण करने वाले अन्य मतावलम्वियों पर दुगुनी शक्ति से प्रत्याक्रमण बोल दिया।

धर्म-प्रचार और यात्रा क्रम में अक्टूबर 1874 में स्वामीजी बम्बई पहुँचे और 10 अप्रेल, 1875 के दिन प्रथम आर्य समाज की स्थापना की। इसके लगभग दो वर्ष बाद लाहौर में आर्य समाज की स्थापना हुई। इसी समय आर्य समाज का विधान बना और देश के विभिन्न भागों में आर्य समाज की शाखाएँ स्वतः ही स्थापित होने लगीं।

एक तरफ स्वामीजी का ध्यान आर्य समाजों के संगठन की तरफ केन्द्रित था, दूसरी तरफ वे वैदिक धर्म और संस्कृति के प्रचार में भी पूरी शक्ति के साथ संलग्न थे। इस क्रम में वे देशी रियासतों के नरेशों को भोग के साथ त्याग, और अपनी प्रजा के हित चिन्तन की शिक्षा देने में भी पीछे नहीं रहे।

17 मई, 1883 ई. को वे जोधपुर पहुंचे और जोधपुर नरेश जसवन्तसिंह को वेश्या नन्हीबाई के प्रेम में लिप्त देखकर जब उन्होंने नरेश को प्रताड़ित किया, तब उस वेश्या ने षड्यन्त्र रचकर स्वामीजी के दूध में विष दिला दिया। 30 अक्टूबर, 1883 ई. को उनका देहावसान हो गया। वैदिक धर्म के प्रचार क्रम में जिन व्यक्तियों के स्वामीजी के साथ भारी मतभेद थे, उन व्यक्तियों ने भी मृत्यु के बाद ‘ज्ञान के इस सूर्य’ को भावभीनी श्रद्धांजलियाँ अर्पित की।

स्वामी दयानंद सरस्वती का धार्मिक विचार

महर्षि दयानंद ही थे जिन्होंने सबसे पहले और सबसे अधिक प्रभाव के साथ ‘वेदों की ओर लौटो’ का संदेश दिया था। उन्होंने भारत और हिन्दू धर्म को नवजीवन प्रदान किया। वैदिक धर्म और संस्कृति को पुनर्जीवित करना उनका एकमात्र ध्येय था।

उन्होंने भारत की खोई आत्मा को ढूँढ़ लिया और उसे राष्ट्रीय जीवन की प्रमुख शक्ति बना दिया। उन्होंने हीनता की भावना से ग्रस्त और यूरोपियन विचारों में पागल बनी भारतीय जनता को अतीत का गौरव दिखाकर और हिन्दू धर्म को सर्वोत्तम बतलाकर उनमें अपूर्व आत्मविश्वास भर दिया।

स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार

स्वामी दयानंद जी के समस्त चिन्तन का मूल स्रोत और आधार वेद हैं। दयानन्द पूर्ण वेदवाद के सन्देशवाहक थे और उन्होंने इस विचार का प्रतिपादन किया कि वेदों की संहिताएँ ही वह ज्ञान है जो सृष्टि के आदि मनुष्यों को ईश्वर से प्राप्त हुआ।

शिक्षा के क्षेत्र में भी उन्होंने वेदों के महत्व को भली-भाँति समझा और लोगों को भी इसके लिए प्रेरित किया। उनका कथन था कि वेद शाश्वत, शुद्ध तथा आदि ज्ञान के स्रोत हैं और वे जीवन की समस्त समस्याओं का वैदिक सिद्धान्तों के आधार पर समाधान करना चाहते थे। स्वामी दयानन्द का यह निश्चित मत था कि नैतिक जीवन जीने के लिए यदि हम वेदों का मार्ग ग्रहण कर लें, तब निश्चय ही सम्पूर्ण मानवता का कल्याण हो सकता है।

स्वामी दयानंद सरस्वती के राजनीतिक विचार

स्वामी दयानंद सरस्वती पूरी तरह से न तो राजनीतिक दार्शनिक थे और न ही प्रत्यक्ष रूप में भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के साथ जुड़े हुए थे। लेकिन स्वामी दयानन्द की रचनाओं प्रमुखतया ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ और ‘ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका‘ के अध्ययन से यह बात स्पष्ट है कि उनका समस्त चिन्तन और उनके कार्य देशभक्ति और भारतीय राष्ट्रवाद के साथ जुड़े हुए थे।

उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में देश का नेतृत्व भले ही न किया हो लेकिन उन्होंने अपने चिन्तन और कार्यों से स्वाधीनता की नैतिक तथा बौद्धिक नींव तैयार की। उनका मानना था कि कोई भी देश स्वाधीनता के लिए तभी संघर्ष कर सकता है जब देशवासियों के हृदयों में स्वधर्म और स्वदेश के प्रति स्वाभिमान का भाव हो। और इस विचार के साथ उन्होंने वेदों का प्रसार कर भारतीय लोगों में नवचेतना का संचार किया जिससे भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता की पृष्ठभूमि तैयार हुई जिसने भारत और इसके लोगों को काफ़ी मदद किया।

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