लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय, निबंध, जीवनी

“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।” लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जी का यह नारा स्वतंत्रता आंदोलन को एक लोक आंदोलन में बदलने में काफ़ी बड़ी भूमिका निभाई है। और आज हम लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का जीवन परिचय (जीवनी) के माध्यम से जानेंगे कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में इनका क्या महत्व है और इनसे हम क्या-कुछ सिख सकते हैं?

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जीवन परिचय

बालगंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 ई. को भारत के पश्चिमी तट पर कोंकण रत्नागिरी में हुआ। तिलक का जन्म जिस परिवार में हुआ वह अपनी धार्मिकता, विद्वता तथा कर्मकाण्ड में आस्था के लिए विख्यात था और तिलक का पालन-पोषण इसी वातावरण में हुआ।

उनके पिता एक शिक्षक तथा संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे; उन्होंने अपने पुत्र को संस्कृत तथा गणित का अच्छा ज्ञान करा दिया। स्कूल जीवन में तिलक ने अनेक अवसरों पर निर्भयता तथा सत्य का परिचय दिया था। आत्मसम्मान की उत्कृष्ट भावना उन्हें अपने पिता से उत्तराधिकार में मिली थी।

बाल गंगाधर तिलक की शिक्षा

उन्होंने 1877 में बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके मित्रों का विचार था कि गणित विषय तथा शोध कार्य के प्रति गहरी रुचि के कारण वे स्नातकोत्तर स्तर पर गणित शास्त्र का अध्ययन करेंगे; परन्तु उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि तिलक ने कानून का अध्ययन करना पसन्द किया।

शिक्षा प्रसार का कार्य तिलक तथा उनके कॉलेज के साथी गोपालराव आगरकर दोनों इस परिणाम पर पहुंचे कि देश की सबसे बड़ी आवश्यकता यथाशीघ्र विदेशी शासन का अन्त करना है। इसके लिए जनता में राजनीतिक चेतना उत्पन्न की जानी चाहिए और इसका प्रारम्भ जनता की शिक्षा से ही सम्भव है।

अतः तिलक ने अपने मित्रों चिपलूणकर, आगरकर तथा नामजोशी के साथ मिलकर 1880 ई. में पूना में न्यू इंग्लिश स्कूल’ की स्थापना की। स्कूल में निर्धन विद्यार्थियों को विशेष सुविधाएं प्रदान की गई थी और उद्देश्य न केवल विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करना, वरन् उन्हें मातृभूमि की सेवा के लिए तैयार करना भी था। शिक्षा के कार्य को आगे बढ़ाने के लिए 1885 ई. में दक्षिण शिक्षा समाज’ की स्थापना की गई।

लोकमान्य तिलक का सामाजिक जीवन

इतिहास के अपने अध्ययन के आधार पर तिलक इस परिणाम पर पहुंचे कि जन-साधारण के सहयोग तथा सहायता के बिना कोई भी क्रान्ति सफल नहीं हो सकती। अतः अपने मित्र आगरकर के साथ मिलकर उन्होंने दो साप्ताहिक पत्रों; मराठी भाषा में ‘केसरी’ और अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ का प्रकाशन प्रारम्भ किया।

इन पत्रों के प्रकाशन के साथ ही उनका सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ होता है। कालान्तर में मित्रों के साथ वैचारिक मतभेद उत्पन्न हो जाने पर तिलक ने ‘दक्षिण शिक्षा समाज’ से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और ‘केसरी’ तथा ‘मराठा’ का पूरा भार अपने हाथ में ले लिया।

शीघ्र ही ये दो पत्र अत्याचार और अनाचार के विरुद्ध संघर्ष के सबसे प्रमुख साधन बन गए और तिलक शीघ्र ही एक ऐसे नेता के रूप में प्रतिष्ठित हो गए, जो जनता के लिए निर्भीकता के साथ लड़ सकता था। उन्होंने इन पत्रों के माध्यम से लगभग 40 वर्ष तक शासन के इन अनाचारों का विरोध किया तथा राजनीतिक शिक्षा के लिए जनता को जन-आन्दोलन की दिशा में प्रेरित करने का कार्य किया।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का राजनीतिक सफ़र

सन् 1885-90 के वर्षों की कांग्रेस के प्रमुख नेता थे-फिरोजशाह मेहता, गोपाल कृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दिनशा वाचा, रासबिहारी बोस और लाल मोहन घोष, आदि। ये व्यक्ति भारत के साथ अंग्रेजों के इस सम्बन्ध को वरदान समझते थे, अंग्रेजों की न्याय भावना में गहरा विश्वास रखते थे और प्रार्थना तथा याचिका की पद्धति को ही उचित समझते थे।

तिलक सर्वप्रथम 1889 में कांग्रेस अधिवेशन में सम्मिलित हुए और उन्होंने देश की सामान्य जनता को कांग्रेस के साथ जोड़ने तथा कांग्रेस को निरन्तर सक्रिय संस्था बनाने पर जोर दिया। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि “कांग्रेस ने एक बड़ा गम्भीर कार्य अपने हाथ में लिया हुआ है, जिसे आत्म-विश्वास तथा आत्म-निर्भरता की भावना के साथ ही पूरा किया जा सकता है।”

19 दिसम्बर, 1893 के ‘केसरी’ में तिलक ने स्पष्ट घोषणा की, “भारत में अंग्रेज नौकरशाही से अनुनय-विनय करके हम कुछ भी नहीं प्राप्त कर सकते। ऐसा प्रयास करना तो एक पत्थर की दीवार से सिर टकराने के समान है।” सन् 1905 में बंगाल विभाजन के समय तिलक का राजनीतिक कार्यक्षेत्र महाराष्ट्र से बढ़कर सम्पूर्ण भारत हो गया।

सरकारी विरोध के बावजूद तिलक दो बार (1895 तथा 1897) बम्बई विधान परिषद् के सदस्य चुने गए। विधान परिषद् में उन्होंने निर्भयता के साथ सरकारी रवैये की कटु आलोचना की। तिलक विधान परिषद् में किए गए कार्य को अधिक महत्व नहीं देते थे; लेकिन वे जनता की सेवा करने और उनमें जागृति उत्पन्न करने के किसी भी अवसर को खोना नहीं चाहते थे।

राजनीतिक कार्यों के लिए जेल जाने वाले प्रथम व्यक्ति सम्भवतः तिलक ही थे। उनसे पहले जेल जाना कलंकित समझा जाता था। उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए जेल जाने की गौरवपूर्ण परम्परा स्थापित कर दी। तिलक ही प्रथम व्यक्ति थे, जिन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया।

पहली बार यह अभियोग 1897 ई. में महाराष्ट्र के नवयुवकों को प्लेग कमिश्नर रैण्ड की हत्या के लिए भड़काने के आरोप पर चलाया गया और उन्हें 18 मास के कठोर कारावास का दण्ड दिया गया। इस पर सारे देश में शोक प्रकट किया गया। माफी मांगने से इंकार करके तिलक ने विदेशी आधिपत्य के सामने भारतीय समर्पण के भद्दे सिलसिले का अन्त कर दिया और इस प्रकार आत्मविश्वास और त्याग के एक नवीन अध्याय तथा राष्ट्रवाद के नवीन युग का सूत्रपात किया। सन् 1914 में कारावास से मुक्त होने पर तिलक पुनः राष्ट्रीय आन्दोलन के कार्य में लग गए।

बाल गंगाधर तिलक पर निबंध

तिलक स्वतन्त्रता संग्राम के सेनापति और राजनीतिज्ञ ही नहीं, वरन् उच्च कोटि के विद्वान् भी ये सन् 1908 से 1914 तक के 6-वर्षीय एकान्त कारावास में उन्होंने ‘गीता रहस्य’ तथा ‘दि आकाटेक होम ऑफ दि वेदाज’ (The Arctic Home of the Vedas) नामक दो प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना को इन दयों में तिलक की विद्वता, ऐतिहासिक शोधवृत्ति, विस्तृत ज्ञान और उत्कृष्ट विचारों का परिचय मेलन है।

सन 1919 ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिये स्वदेश लौटने के समय तक लोकमान्य तिलक इतने नरम हो गये थे कि उन्होंने मॉन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के द्वारा स्थापित लेजिस्लेटिव कौंसिल (विधायी परिषद) के चुनाव के बहिष्कार की गान्धी जी की नीति का विरोध ही नहीं किया। इसके बजाय लोकमान्य तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिये प्रतिनिधियों को यह सलाह अवश्य दी कि वे उनके प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग की नीति का पालन करें। लेकिन नये सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही 1 अगस्त,1920 ई. को बम्बई में उनकी मृत्यु हो गयी। मरणोपरान्त श्रद्धाञ्जलि देते हुए गान्धीजी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा और जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रान्ति का जनक बतलाया।

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