भारतीय किसान पर निबंध (500 शब्दों में) Hindi Essay on Indian Farmers

भारत एक कृषि-प्रधान देश है। आज भी गाँवों में अधिकतम लोग खेती-किसानी से ही अपना जीवनयापन करते हैं। हमारे किसान पूरे देश के लोगों के लिए अनाज और सब्ज़ियाँ उगाते हैं, और सबका पेट भरते हैं। इनके महत्व को देखते हुए ही विद्यालयों और परीक्षाओं में एक भारतीय किसान पर निबंध लिखने को कई बार आ जाता है। यह लेख एक Hindi Essay on Indian Farmers होनेवाला है जिससे हमारे किसानों के बारे में विस्तार से जान सकते हैं।

भारतीय किसान पर निबंध

भारतीय किसान आत्मविश्वास, धैर्य, साहस, कर्मठता और दृढ़ चरित्रता का प्रतीक है। यह जितना कठोर श्रम करता है उतना शायद ही किसी और पेशे के लोग करते हों। फिर भी अभाव और जिल्द-जल्लात की जिंदगी बसर करने के लिए मजबूर हैं।

हल-कुदाल और माथे पर खाँची की टोकरी लेकर सुबह होते ही अपने कर्मक्षेत्र की ओर उन्मुख हो जाता है। न इस किसान के पाँव में पनही है, न सिर पर टोपी, घुटने तक धोती, अंधविश्वासों से घिरा, रूढ़ियों से जकड़, मुख-मंडल पर चिंता की रेखाएँ स्पष्ट रूप से अपनी दरिद्रता की कहानी कहती नजर आती है।

भारतीय किसान न छद्मवेशी राजनीतिज्ञों की राजनीति जानता है न कृष्ण की गीता। कर्मयोग क्या है? इसे यह नहीं जानता। फिर भी कर्मयोग से सुपरिचित है। कर्म करना ही इसका प्रधान धर्म है। धर्म की परिभाषा क्या है? इसे भी नहीं जानता है। सच्चाई के साथ अपने कर्मों का इतिहास बुलंद करता है। भाग्य की थाती को ही सब कुछ समझता है।

खेत जोत पर उसमें बीज डाल देता है। उस बीज को उगाने के लिए कठोर श्रम भी करता है मगर भाग्य भरोसे। ईश्वर पर इतना विश्वास करता है कि उसके सहारे सारे परिणाम की आशा करने लगता है। ईश्वर ने बीज में दाना दिया तो भी ठीक, नहीं दिया तो भी ठीक। वह अपनी सनातन व्यवस्था पर मोर्चे सम्भाले रहता है।

जेठ की दोपहरी हो या पूस की रात भारतीय किसान पर कोई असर पड़ने वाला नहीं। धनवान जेठ की गर्मी से बचने के लिए कूलर, पंखे, बर्फ पता नहीं किन-किन चीजों का उपयोग करता है, मगर किसानों के पाँवों में पनही भी नसीब नहीं होती।

कैसी विडम्बना है कि जो दुनिया का पेट भारत है उसे ही भूख की पीड़ा और दरिद्रता घेरे रहती है। जोड़े से काँपती हुई उसकी हड्डियाँ किसी की सहारा नहीं माँगती, बल्कि उस अवस्था में भी किसी का सहारा बनकर अपने को सौभाग्यशाली मानता है।

भारतीय किसान निरक्षर भले ही हैं, अशिक्षित नहीं, इसने जीवन के खेत-खलिहान में वृहत शिक्षा पायी है। अतः इसकी शिक्षा जीवनोपयोगी और व्यावहारिक है। आसमान का रंग और हवा का रूप देखकर यह बतला देगा कि पानी बरसने वाला है या आँधी आने वाला है। प्राणी विज्ञान या वनस्पति विज्ञान का यह क, ख, ग भी नहीं जानता, पर गाय-बेलें और अपनी फसल के दुःख दर्द की भाषा अच्छी तरह समझता है।

भारतीय किसान नीरस होता है, उसकी जिंदगी नीरसता के आवरण में अपने को फैला नहीं पाता। इस बात को मैं मानने से साफ इनकार करता हूँ। सरस प्रकृति के साथ रहने वाले इस किसान की सरसता अगर देखनी हो तो इसके विरहे का अलाप सुनें, ढोलक-झाल लेकर जब या ‘होली’ और ‘चैती’ गाने बैठता है तो इसकी तन्मयता देखते ही बनता है। फाल्गुन की बयार शरीर में लगते ही जब वास मस्त होकर ‘ब्रज में खेलें मोहन होली रे’ कह उठता तब इसके हृदय की पुकार को समझे। हाँ, इतना अवश्य है कि इसकी सरसता बाबुओं की तरह उच्छृंखल और अव्यावहारिक नहीं होता।

त्रिमुंड लगाकर, गैरिक वस्त्रों में विभूषित बड़े-बड़े तपस्वी जब भारतीय किसान की तपस्या देखते हैं तो उनकी मनःस्थिति काँप उठती है। जिसने जीवन में आराम को हराम समझा है, श्रम को भगवान माना है, कर्म को पूजा। इसकी निश्छलता और निर्विकार भावनाओं को सबने आदर दिया, मगर दबे ज़ुबान से। सच्चाई को कह पाने की सामर्थ्य शायद ही किसी में हो। भारतीय किसान हिमालय की गोद से अपने लिए जड़ी-बूटियाँ लाता है, उसी के पवित्र जल को जीवन का अमृत समझता है।

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